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जाने सूरज कब निकले है वक्त अभी रुसवाई का------गज़ल

22 22 22 22 22 22 22 2

नैन में रैन गँवाए जाऊँ, वक्त पहाड़ जुदाई का

जाने सूरज कब निकले, है वक्त अभी रुसवाई का

उनको कोई ग़रज़ नहीं जो पूछें हाल हमारा भी

कोई दूजी वज्ह नहीं, परिणाम है कान भराई का

हमनें चाँद के दाग पे केवल शेर पढ़ा इक, महफ़िल में

चहरे का रँग बोल रहा था हाल खुदी हरजाई का

खुद की ख़ता भी खुद को सज़ा भी, रोना धोना कैसा फिर

देवी उसको बना दिया, फिर मुद्दा कहाँ रसाई का

यारों चिंता कोई न करिए, रोज़ मिलूँगा राहों में

याद में जलना, शेर में ढ़लना, काम है इस सौदाई का

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by नाथ सोनांचली on January 10, 2018 at 3:05pm

आद0 पंकज जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल का प्रयास है, बधाई आपको। सादर। आली जनाब समर साहब की बातों का संज्ञान लीजियेगा। सादर

Comment by Samar kabeer on January 10, 2018 at 11:17am

'मसला' भी ग़लत शब्द है,सही शब्द है "मसअला",कोई और विकल्प देखें ।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 10, 2018 at 8:30am

आदरणीय बाऊजी सादर प्रणाम; दूसरे शेर के सानी मिसरे में "मुआमला" की जगह "मसला" कर देने पर शायद लय सही हो जाए?

Comment by Samar kabeer on January 9, 2018 at 11:28pm

अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

दूसरे शैर का सानी मिसरा लय में नहीं है,देखियेग ।

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