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जिधर देखो उधर मेहनत कशों की - सलीम रज़ा रीवा

1222 1222 1222 1222

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जिधर देखो उधर मिहनत  कशों की ऐसी हालत है-

ग़रीबों  की  जमा अत पर अमीरों की क़यादत है

-

मुक़द्दर ले के आया है न जाने कैसी बस्ती में-

नज़र आती नहीं मुझको किसी के दिल में चाहत है

-

कहीं दहशत कहीं अस्मत फरोशी है कहीं नफ़रत-

ज़माने में जिधर देखो क़ियामत ही क़ियामत है

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ग़रीबों के घरों में रहबरों देखो कभी जा कर-

वहां खुशियां नहीं हैं सिर्फ फ़ाक़ा और गुरबत है

-

न जाने किस शनावर के मुक़द्दर में लिखा मोती-

समुन्दर में भला मालूम किस को कितनी दौलत है

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रज़ा जो मिल नहीं पाया न कर उसका कोई शिकवा-

ये क्या कम है तुझे शुहरत मिली उसकी बदौलत है

-

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by SALIM RAZA REWA on November 1, 2017 at 8:30pm

जनाब डॉ छोटेलाल सिंह जी ,
ग़ज़ल में आपकी शिरक़त और हौसला अफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।

Comment by SALIM RAZA REWA on November 1, 2017 at 8:29pm

जनाब तेजवीर सिंह जी ,
ग़ज़ल में आपकी शिरक़त और हौसला अफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।

Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on November 1, 2017 at 6:49pm
आदरणीय सलीम रजा साहब बहुत बेहतरीन गजल लिखने के लिए आपको बहुत बहुत बधाई
Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 1, 2017 at 3:01pm

आदरणीय सलीम राजा रेवा जी बहुत बढ़िया ग़ज़ल है इस के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by TEJ VEER SINGH on November 1, 2017 at 1:41pm

हार्दिक बधाई आदरणीय सलीम राज़ा रेवा जी।आदाब। बहुत खूबसूरत गज़ल।

मुक़द्दर ले के आया है न जाने कैसी बस्ती में.

नज़र आती नहीं मुझको किसी के दिल में चाहत है.

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