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ग़ज़ल....कितने घावों को सिल डाला शब्दों के पैबंदों से-बृजेश कुमार 'ब्रज'

622 22 22 22 22 22 22 2
भावों के धागे चुन चुन कर अरमानों के बंधों से
कितने घावों को सिल डाला शब्दों के पैबंदों से

साँसों से जीवन जैसा फूलों से तितली का रिश्ता
कुछ ऐसा ही नाता अपना कविता गीतों छंदों से

जन्मों जन्मों का बंधन है डरना क्या इनसे बन्धू
दुख चलते हैं बनके साथी इनसे हैं अनुबंधों से

अक्सर सच की नीलामी भी चौराहों पे होती है
उसकी हालत बद से बदतर लूले बहरे अंधों से

मजहब को जीने वाले वो मजहब को ही खाते हैं
कोने में दुबका बैठा है मजहब गोरख धंधों से

ठग हैं भूखों की आहों के ये सपनों के सौदागर
कैसे बच के रह पाओगे नेताओं के फन्दों से
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
​​बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 9, 2017 at 12:04pm
आदरणीय नीलेश जी सादर अभिवादन..जी बिलकुल कसा जा सकता है..कोशिश कर रहा हूँ और गहराई में उतर सकूँ..
Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 8, 2017 at 7:48pm

अच्छी ग़ज़ल हुई है आ. बृजेश जी...
मिसरों को और कसा जा सकता है... 
रचते रहिये
सादर 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 8, 2017 at 7:10pm
आदरणीय अफरोज जी रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं आपकी अमूल्य प्रतिक्रिया के लिए आभार व्यक्त करता हूँ।आपके द्वारा इंगित सुझाव स्वागतयोग्य हैं..सादर
Comment by Afroz 'sahr' on October 6, 2017 at 4:19pm
आदरणीय ब्रजेश जी आदाब सुंदर रचना के लिए आपको बधाई देता हूँ। तीसरे शेर का सानी मिसरा यूँ होना चाहिए "दुख चलते हैं बनके साथी ऐसे ही अनुबंधों से" चौथे शेर का सानी मिसरा शब्द विन्यास तथा व्याकरण के लिहाज़ से दुरुस्त नहीं हैं।
पाँचवे शेर के ऊला मिसरे में भी लगभग यही दोष है। छटवें शेर के ऊला मिसरे में भी सुधार की आवश्यकता है। बाकी शुभ शुभ सादर,,,
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 6, 2017 at 3:48pm
मापनी में 6 गलती से टाइप हो गया है कृपया नजरअंदाज करें..
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 6, 2017 at 3:47pm
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय डा. साहब..
Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 1, 2017 at 5:27pm
आदरणीय भाई ब्रज जी बहुत ही उम्दा रचना है हर शेर उम्दा वर्तमान परिदृश्य की अच्छी झांकी प्रस्तुत की है आपने रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर

कृपया ध्यान दे...

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