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ग़ज़ल नूर की-मुझ को कोई ख़रीद ले सस्ता किए बग़ैर

२२१/ २१२१/ १२२१/ २१२ (अरकान सही क्रम में हैं या नहीं ये मुझे नहीं पता)

मुझ को कोई ख़रीद ले सस्ता किए बग़ैर
रुसवाई यानी हो भी तो रुसवा किए बग़ैर. 
.
रुख्सत किया है ज़ह’न से यादें लपेट कर, 
तन्हा किया है आप ने तन्हा किए बग़ैर.
.
झुकिए अना को छोड़ के गर इल्म चाहिए,
मिलता नहीं सवाब भी सजदा किए बग़ैर.
.
जिस दर पे पूरी होतीं मुरादें तमाम-तर  
हम वाँ से लौट आये तमन्ना किए बग़ैर.
.
मुझ को न हो गुरूर मेरे नूर का कभी  
रौशन ख़ुदाया रखना सितारा किए बग़ैर.
.
देकर ज़ुबान लौटने की बँध न जाते “नूर”
रुख़्सत हुए जहान से वादा किए बग़ैर
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 940

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 28, 2017 at 7:33am

शुक्रिया आ. रोहित जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 28, 2017 at 7:33am

शुक्रिया आ. महेंद्र जी 

Comment by रोहित डोबरियाल "मल्हार" on September 27, 2017 at 8:42pm

उम्दा ग़ज़ल निलेश जी बधाई स्वीकार करें

Comment by Mahendra Kumar on September 27, 2017 at 7:53pm

रुख्सत किया है ज़ह’न से यादें लपेट कर,  
तन्हा किया है आप ने तन्हा किए बग़ैर.  ...वाह! 

हमेशा की तरह एक और उम्दा ग़ज़ल. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए आ. निलेश सर. सादर.

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 27, 2017 at 4:35pm

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 27, 2017 at 4:34pm

शुक्रिया आ. रवि जी

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 27, 2017 at 4:34pm

शुक्रिया आ. गिरिराज जी

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 27, 2017 at 4:34pm

शुक्रिया आ. पंकजोम जी

Comment by Ravi Shukla on September 27, 2017 at 2:32pm
आदरणीय नीलेश जी बहुत अच्छी ग़ज़ल आपने कही शेर दर शेर मुबारकबाद कुबूल करें

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 27, 2017 at 11:53am

वाह वा ! आ. नीलेश भाई , बढिया गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें ।

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