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आएं न आएं वो लेकिन - सलीम रज़ा रीवा

22 22 22 22 22 22 22 2

.........................................

आएं न आएं वो  लेकिन हम आस लगाए .बैठे हैं 

दिन ढलते ही शमए मुहब्बत घर में जलाए बैठे हैं 

..

आख़िर दिल की बात ज़ुबाँ तकआये तो कैसेआये 

अपनी  ख़ामोशी  में  वो  सब  राज़  छुपाये बैठे हैं 

..

हैरत है जो प्यार मुहब्बत से ना वाकिफ़ हैं यारो 

वह  इल्ज़ाम दग़ाबाज़ी का मुझ पे लगाए  बैठे हैं

..

कौन है अपना कौन पराया कैसे पहचाने कोई 

चहरों पर  तो फ़र्ज़ी चहरे लोग सजाए  बैठे  हैं

..

परदेसी और बेगानों की बात करें आख़िर कैसे 

हम तो अपनों  से  ही कितने धोके खाए बैठे हैं 

..

मुझको ये उम्मीद नहीं थी जाएंगे इक रोज़ बदल 

जिनके प्यार में हम अपना घरबार लुटाए बैठे हैं 

.......................................

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by SALIM RAZA REWA on September 11, 2017 at 8:04pm
भाई महेंद्र जी आपकी इनायत का शुक्रिया,
Comment by Mahendra Kumar on September 11, 2017 at 7:44pm

अच्छी ग़ज़ल है आ. सलीम जी. हार्दिक बधाई प्रेषित है. सादर.

Comment by SALIM RAZA REWA on September 10, 2017 at 6:47pm
जनाब आरिफ़ साहब शायद आप मेरी ग़ज़ल के मुबारकबाद किसी और की ग़ज़ल मे दे दी,,
Comment by SALIM RAZA REWA on September 10, 2017 at 6:43pm
आली जनाब समर साहब,
आपकी नज़रे इनायत के लिए बहुत बहुत शुक्रिया, आपकी मुहब्बत सलामत रहे ,
Comment by Samar kabeer on September 10, 2017 at 6:32pm
जनाब सलीम रज़ा साहिब आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।

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