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ग़ज़ल....दुआयें साथ हैं माँ की वगरना मर गये होते-बृजेश कुमार 'ब्रज'

1222 1222 1222 1222
रगों को छेदते दुर्भाग्य के नश्तर गये होते
दुआयें साथ हैं माँ की नहीं तो मर गये होते


वजह बेदारियों की पूछ मत ये मीत हमसे तू
हमें भी नींद आ जाती अगर हम घर गये होते

नज़र के सामने जो है वही सच हो नहीं मुमकिन
हो ख्वाहिशमंद सच के तो पसे मंज़र गये होते

अगर होती फ़ज़ाओं में कहीं आमद ख़िज़ाओं की
हवायें गर्म होतीं और पत्ते झर गये होते

शिकायत भी नहीं रहती गमे फ़ुर्क़त भी होता कम
न होती आँख 'ब्रज' शबनम अगर कह कर गये होते 
(मैलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 2, 2017 at 11:38pm
स्नेहमयी टिप्पड़ी के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय लक्षमण धामी जी..सादर
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 2, 2017 at 12:06pm
आ. बृजेश भाई जी, हार्दिक बधाई ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 31, 2017 at 7:53pm
आभार आदरणीय नीरज जी..आपका सुझाव खूबसूरत है..विशेषकर सानी।
Comment by Niraj Kumar on August 30, 2017 at 4:50pm

आदरणीय नीरज जी,

हार्दिक आभार. जल्दी में एक 'ऐ' छूट गया था : 

वजह बेदारियों की पूछ मत हम से तू ऐ हमदम 
हमें भी नींद आ जाती अगर हम घर गये होते

सादर 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 30, 2017 at 2:44pm
आदरणीय नीरज जी रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनन्दन है।जी आदरणीय व्याकरणिक दृष्टि से ये उचित नहीं है।दरअसल पहले 'रगें तक' था आदरणीय समर जी की सलाह पे 'तक' को 'को' किया।लेकिन रगें भूलवश रह गया।सुधार करता हूँ।दूसरे शेर के लिए आपका सुझाव खूबसूरत है लेकिन बहर से खारिज है..सादर
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 30, 2017 at 2:39pm
आदरणीय राज नवादवी जी आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा सौभाग्य है..आपका बहुत बहुत धन्यवाद
Comment by Niraj Kumar on August 29, 2017 at 6:05pm

आदरणीय बृजेश जी,

खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. दाद के साथ मुबारकबाद.

'रगें को'  व्याकरणिक रूप से गलत है 'रगों को' कर लें.

और अगर अच्छा लगे तो दूसरे शेर को कुछ यूं कर सकते है :

वजह बेदारियों की पूछ मत हम से तू हमदम 
हमें भी नींद आ जाती अगर हम घर गये होते

सादर 

  

Comment by राज़ नवादवी on August 29, 2017 at 2:29pm

सुन्दर ग़ज़ल जनाब बृजेश जी. मुबारकबाद. ख़ासकर ये दो अशआर बड़े सुन्दर हुए हैं: 

अगर होती फ़ज़ाओं में कहीं आमद ख़िज़ाओं की
हवायें गर्म होतीं और पत्ते झर गये होते

शिकायत भी नहीं रहती गमे फ़ुर्क़त भी होता कम
न होती आँख में शबनम अगर कहकर गये होते

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 29, 2017 at 10:11am
बहुत बहुत आभार आदरणीय अजय शर्मा जी..
Comment by ajay sharma on August 28, 2017 at 11:37pm

आदाब, बेहतरीन ग़ज़ल 

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