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1222 1222 1222 1222

हमारे ग़म का उसको क्या कभी अंदाज होता है।
हमारी राह में कांटे जो वो हरबार बोता है।

कभी रूठे अगर जो हम तो ये भी याद रखना तू,
न फिर पायेगा हमको तू अगर इस बार खोता है।

बता इस ग़म का तुझपर क्यों नहीं कोई असर होता,
तू हर दम मुस्कुराता है हमारा दिल जो रोता है।

झमेले ज़िन्दगी के मुश्किलों से झेलते हैं हम,
अकेले जूझते हैं हम उधर उधर वो खूब सोता है।

अजब अपनी कहानी है रहे हैं हम निथरते ही,
बरसती आँख का सावन बहुत 'मन' को भिगोता है।

मंजूषा मन
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by मंजूषा 'मन' on August 23, 2017 at 9:30pm
बहुत बहुत शुक्रिया आ0 लक्ष्मण जी

टंकण त्रुटियों न ये ख्याल रखेंगे
Comment by मंजूषा 'मन' on August 23, 2017 at 9:28pm
बहुत बहुत शुक्रिया आ0 लक्ष्मण जी

टंकण त्रुटियों न ये ख्याल रखेंगे
Comment by vijay nikore on August 23, 2017 at 4:05pm

गज़ल अच्छी लगी। बधाई, आदरणीया मंजूषा जी।

Comment by Samar kabeer on August 22, 2017 at 9:45pm
मोहतरमा मंजूषा जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मतले के ऊला मिसरे में 'अंदाज़'को "अंदाज़:"कर लें तो मतले का हुस्न बढ़ जायेगा ।
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on August 22, 2017 at 5:44pm
मुहतर्मा मंजूषा साहिबा ,सुन्दर ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं। शेर 5 के सानी मिसरे में उधर शब्द एक बार ही आएगा
Comment by Ravi Shukla on August 22, 2017 at 5:19pm

आदरणीया मंजूषा जी आपकी गजल के लिए शेर दर शेर मुबारक बाद कुबूल करें । आखिरी शेर का उला मिसरा कुछ असहज लग रहा है हालांकि बहर में है पर और बेहतर की गुजांइश लग रही है । पुन: बधाई

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 22, 2017 at 1:42pm
सुंदर भाब ...हार्दिक बधाई कुछ टंकण त्रुटियाँ हैं उन्हें ठीक कर लें ।

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