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ग़ज़ल नूर की- किसे गुरेज़ जो दो-चार झूठ बोले है,

१२१२/११२२/१२१२/२२ (११२)
.
किसे गुरेज़ जो दो-चार झूठ बोले है,
मगर वो शख्स लगातार झूठ बोले है.
.
चली भी आ कि तुझे पार मैं लगा दूँगी, 
हमारी नाव से मँझधार झूठ बोले है.
.
सवाल-ए-वस्ल पे करना यूँ हर दफ़ा इन्कार 
ज़रूर मुझ से मेरा यार झूठ बोले है.
.
कहानी ख़ूब लिखी है ख़ुदा ने दुनिया की,
कि इस में जो भी है किरदार, झूठ बोले है. 
.
पटकना रूह का ज़िन्दान-ए-जिस्म में माथा,
बिख़रना तय है प् दीवार झूठ बोले है.   
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 21, 2017 at 6:57pm

शुक्रिया आ. मोहम्मद आरिफ़ साहब 

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on May 21, 2017 at 4:41pm
मुहतरम जनाब नीलेश साहिब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें ----शेर 2 में शायद शुतुरगुरबा हो गया है
Comment by Ram Awadh VIshwakarma on May 21, 2017 at 4:09pm
गज़ल के सभी शेर बोलते हुये हैं बधाई

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 21, 2017 at 2:17pm

आदरणीय नीलेश भाई , बहुत बढ़िया गज़ल कही है ... सभी शेर अच्छे लगे ,  हार्दिक बधाइयाँ गज़ल के लिये ।

Comment by Mohammed Arif on May 21, 2017 at 1:21pm
चली भी आ कि तुझे पार मैं लगा लूँगी
हमारी नाव से मँझधार झूठ बोले हैं । वाह!वाह!! लगता है एक सखी दूसरी सखी को मानो आगाह कर रही हो
किसे गुरेज़ जो दो-चार झूठ बोले है
मगर वो शख़्स लगातार झूठ बोले है । सच है । आज सभी झूठ बोलने की लंबी कतार लगाए बैठे हैं । सच का कोई शैदाई नज़र नहीं आता ।
आदरणीय नीलेश जी शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद कुबूल करें ।

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