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अपने दिल की कहाँ सुनता हूँ

मैं अपनी कमीज़ गंदी करके पहनता हूँ।
मैं आज भी चाय ठंडी करके पीता हूँ।

सुबह की धूप से मेरी मौसिकी नहीं आज भी।
रात की यारी मैं आज भी पक्की करके जीता हूँ।

न सताया करो देखकर यूँ कभी-कभी।
मैं आज भी ज़ेहन में तुमसे कत्ल होकर मिलता हूँ।

खुश है कि नहीं कोई परिंदा दिल का।
कैसे हो पता मैं आज भी अपने दिल की कहाँ सुनता हूँ।


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मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by ASHUTOSH JHA on April 9, 2017 at 4:18pm
आदरणीय गिरिराज जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 5, 2017 at 6:11pm

आदरणीय आशुतोष भाई , रचना के भावों और विचारों के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ....  बाक़ी बातों के लिये मै आदरनीय समर भाई जी  से सहमत हूँ ..।

Comment by ASHUTOSH JHA on April 3, 2017 at 5:35pm
आपके सुझाव के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर कबीर जी। मैं ज़रूर प्रयास करूंगा।
हार्दिक आभार।
Comment by Samar kabeer on April 3, 2017 at 10:33am
आपकी रचना का रूप ग़ज़ल जैसा ज़रूर है लेकिन उसके मानकों पर पूरा नहीं उतरता,इसलिये आपसे निवेदन है कि अगर आप ग़ज़ल सीखना चाहते हैं तो ओबीओ पर ग़ज़ल की कक्षा का लाभ उठायें ।
Comment by ASHUTOSH JHA on April 3, 2017 at 12:46am
आदरणीय समर कबीर जी।नमस्कार।

मेरे हृदय से जो छलका उसे मैंने कलमबद्ध कर आप सभी के सामने प्रस्तुत किया।

यह क्या है इसके विषय में आप जैसे विद्वान और जानकार लोग ही बता सकते हैं।

सादर आभार।
Comment by Samar kabeer on April 2, 2017 at 6:06pm
जनाब आशुतोष झा साहिब आदाब,ये क्या ग़ज़ल है, या कुछ और ?

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