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समझता था ख़ुद को ज़र्रे से भी कमतर मगर
मिला वज़ूद से तो सैलाब निकला...

ज़ेहन में पड़े हैं अब भी बहुत से किर्च मगर
बहुतों के हिसाब से आफ़ताब निकला...

ढूंढा चाँद को सबने फ़क़त मगर
आँखवाला नहीं कोई भी जनाब निकला...

जाते हैं रस्ते से सब ही इसी तरह
कुछ के पैरों से रस्ता बेहिसाब निकला...

निकला न करो छुप कर हमसे मेरे नसीब
तुमसे भी कभी मेरा इख़्तियार निकला...

फ़ुरसत के पल न ढूंढा करो मिलने के
जब जब रहा ज़ेहन में तेरा दीदार निकला...

गुलों से भी जां जा सकती है गर फेंका जाए बेरुख़ी से
ईश्क में दो फेंक जहां भी तो कोई कसूर न निकला...

सज़दा न किया करो बुतों बेबुतों के सामने हर पल
गर समझ ख़ुद के वज़ूद को तो ख़ुदा न हमसे जुदा निकला...

समझता था ख़ुद को ज़र्रे से भी कमतर मगर
मिला वज़ूद से तो सैलाब निकला...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by ASHUTOSH JHA on March 4, 2017 at 11:56pm
आदरणीय सुरेन्द्र जी हार्दिक आभार।
Comment by नाथ सोनांचली on March 4, 2017 at 7:23am
आद0 आशुतोष झा जी सादर अभिवादन। यह रचना गजल तो नही है शायद क्योकि कोई बह्र मुझे समझ में नही आया, पर हाँ भाव बेहद उम्दा है, आपकी भावपूर्ण रचना के लिए कोटिश बधाइयाँ।
Comment by ASHUTOSH JHA on February 28, 2017 at 2:01am
हार्दिक आभार शिज्जु जी।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on February 27, 2017 at 11:20am

अच्छी रचना है बधाई

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