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2122 1212 22/112

लफ़्जों से दर्द की दवा करके
देखा है यूँ भी तज़्रबा करके

तुम पे दहशत कोई मुसल्लत थी
करना क्या था तुम आए क्या करके

खींचता हूँ हयात को मैं फ़क़त
कट रही है खुदा खुदा करके

अपने माज़ी से है सवाल मेरा
क्या मिला उनसे राबिता करके

होश आ जाए नामुरादों को
देखिए मुहतरम दुआ करके

खिड़कियाँ खोल दी शबिस्ताँ की
दिल से सपनो को अब जुदा करके

दस्तबरदार तुमसे हो जाऊँ
सोचा था मैंने हौसला करके

तज़्रबा - अनुभव, मुसल्लत - हावी होना
हयात - ज़िन्दगी, फ़क़त - केवल
माज़ी - अतीत, राबिता - संबंध
शबिस्ताँ - शयन कक्ष, दस्त-बरदार - विरक्त
-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Ravi Shukla on March 31, 2017 at 10:45am

आदरणीय शिज्‍जू भाई बहुत ही अच्‍छी गजल कही आपने दिली मुबारक बाद पेश है ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 31, 2017 at 8:28am

वाह वाह ..शिज्जू भाई ..बहुत खूब.. आते रहा कीजिये 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 30, 2017 at 6:25pm
वाह आदरणीय बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई..हर एक शेर बेमिसाल..हार्दिक बधाई

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