For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

मैं ज़िन्दगी का आशिक़, भावों से पिला साक़ी- पंकज द्वारा गजल

221 1222 221 1222

ये जाम अलग रख दे, आँखों से पिला साक़ी
सदियों से अधूरी है, होठों से पिला साक़ी

अंगूर की मदिरा तो, करती है असर कुछ पल
ता उम्र नशा होए, साँसों से पिला साक़ी

गिर जाते जिसे पीकर, वो जाम नहीं चाहूँ
आऊँ मैं नज़र खुद को आँखों से पिला साक़ी

मैं तोड़ भी लाऊँगा कह दे तो सितारे भी
तू इश्क़ को ग़र अपने ख्वाबों से पिला साक़ी

शीशे के ये पैमाने बेजान नहीं भाते
मैं ज़िन्दगी का आशिक़, भावों से पिला साक़ी

मौलिक अप्रकाशित

Views: 659

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 3, 2017 at 12:35am

//,दोनों अशआर में भाव अलग अलग हैं । कभी कभी कुछ ज़मीनें ऐसी मिल जाती हैं कि वहाँ क़ाफिये तंग हो जाते हैं,ऐसी सूरत में दो  दो बार तो क्या तीन बार भी एक ही क़ाफ़िया लिया जा सकता है,'साहिर' के अलावा भी कई उस्ताद शाइरों के यहाँ ऐसी मिसालें मिलती हैं,जो वक़्त आने पर पेश की जा सकती हैं //

यही तो मेरे कहे का इशारा है। संभवतः आपने एकदम से टिप्पणी कर दी, आदरणीय समर साहब।

हमने कहा ही न - //अगर किसी सूरत में किसी शब्द को दो या अधिक दफ़े क़ाफ़िया केरूप में प्रयुक्त करना ही पड़े तो उसके लिए भी कुछ विशेष समझ है. इस ओर निग़ाह बनी रहे. //

सादर

Comment by Samar kabeer on February 2, 2017 at 7:24pm
एक ही क़ाफ़िया को दो बार लेने से ये नहीं कहा जा सकता कि ग़ज़लकार के पास शब्दों का अकाल है, हाँ ये जरूत है कि इससे बचना चाहिये, 'साहिर'लुध्यानवी की ग़ज़ल के ये अशआर देखिये :-

"तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िन्दगी से हम
ठुकरा न दें जहाँ को कहीं बेदिली से हम

उभरेंगे एक बार अभी दिल के वलवले
गो दब गये हैं बार-ए-ग़म-ए-ज़िन्दगी से हम"

"ज़िन्दगी"क़ाफ़िया एक ही ग़ज़ल में दो बार इस्तेमाल हुआ है,क्या इन अशआर को पढ़ कर या सुनकर कोई ये कह सकता है कि 'साहिर'के पास शब्दों की कमी थी ?नहीं कह सकता,क्योंकि एक ही क़ाफ़िया लेने से ये साबित नहीं होता,दोनों अशआर में भाव अलग अलग हैं । कभी कभी कुछ ज़मीनें ऐसी मिल जाती हैं कि वहाँ क़ाफिये तंग हो जाते हैं,ऐसी सूरत में दो बार तो क्या तीन बार भी एक ही क़ाफ़िया लिया जा सकता है,'साहिर' के अलावा भी कई उस्ताद शाइरों के यहाँ ऐसी मिसालें मिलती हैं,जो वक़्त आने पर पेश की जा सकती हैं । उम्मीद है बात स्पष्ट हुई होगी ।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 2, 2017 at 6:29pm
आदरणीय सौरभ सर सादर प्रणाम, यहां समस्या काफिया को लेकर नहीं थी, अपितु रदीफ की वजह से अपितु रदीफ़ की वजह से परेशानी हुई, " से पिला साकी" रदीफ़ होने के कारण समस्या यह हुई कि- साक़ी-आँखों, हाथों, होंठों,ख्वाबों, साँसों, भावों से तो पिला सकती है लेकिन और आंय कोई समुचित माध्यम नहीं दिखा जिससे पीया जा सके, इसलिए काफ़िया कम पड़ गया।। अन्यथा-ओं काफ़िया बहुत आसान होता है। सादर
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 2, 2017 at 6:29pm
आदरणीय सौरभ सर सादर प्रणाम, यहां समस्या काफिया को लेकर नहीं थी, अपितु रदीफ की वजह से अपितु रदीफ़ की वजह से परेशानी हुई, " से पिला साकी" रदीफ़ होने के कारण समस्या यह हुई कि- साक़ी-आँखों, हाथों, होंठों,ख्वाबों, साँसों, भावों से तो पिला सकती है लेकिन और आंय कोई समुचित माध्यम नहीं दिखा जिससे पीया जा सके, इसलिए काफ़िया कम पड़ गया।। अन्यथा-ओं काफ़िया बहुत आसान होता है। सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 2, 2017 at 6:00pm

किसी ग़ज़ल में एक ही शब्द को दो दफ़े क़ाफ़िया के रूप में लेने की मनाही नहीं होने के बावज़ूद यह परिपाटी के रूप में मान्य नहीं है. साथ ही, इसे लेकर यह भी कहा जाता है कि यह ग़ज़लकार के पास शब्दों की कमी को भी दर्शाता है. किसी ग़ज़लकार की ताकत उसके लफ़्ज़ ही होते हैं. क्योंकि ग़ज़ल की विधा किसी ग़ज़लकार की भाषा (ज़ुबान) और शब्द (लफ़्ज़) की ताकत का पैमाना है. 

अब अगर किसी सूरत में किसी शब्द को दो या अधिक दफ़े क़ाफ़िया केरूप में प्रयुक्त करना ही पड़े तो उसके लिए भी कुछ विशेष समझ है. इस ओर निग़ाह बनी रहे. 

प्रस्तुत ग़ज़ल के लिए भाई पंकज जी को हार्दिक बधाइयाँ .. 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 2, 2017 at 3:22pm
आदरणीय बाऊजी बहुत बढ़िया जानकारी मिली, मैं समझता था कि एक काफ़िया एकदम एक बार ही ले सकते हैं, मगर अब जान गया कि विशेष परिस्थिति में 2 बार एक काफ़िया रख सकते हैं, सादर आभार
Comment by Samar kabeer on February 2, 2017 at 3:10pm
एक क़ाफ़िया दो बार ले सकते हैं,कोई पाबंदी नहीं है,'हाथों'की तुक सही नहीं है न ।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 2, 2017 at 3:06pm
आदरणीय बाऊजी सादर प्रणाम, दर असल यहाँ आँखों ही प्रयुक्त किया था, लेकिन आगे दूसरे शेर में आँखों का प्रयोग किया है, इसलिए हाथों से पिला साकी कर दिया।। काफ़िया नहीं समझ में आ रहा था, उस लिए
Comment by Samar kabeer on February 2, 2017 at 3:01pm
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,ग़ज़ल अच्छी है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
'ये जाम अलग रख दे हाथों से पिला साक़ी'
भाई हाथों से साक़ी कैसे पिलायेगा अगर जाम अलग रख देगा ? क्या ओक से पिलायेगा ? यहां क़ाफ़ियाय 'आँखों'ठीक रहेगा ।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 2, 2017 at 12:42pm

आ. भाई पंकज जी सूंदर ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई .

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
शिज्जु "शकूर" posted a blog post

ग़ज़ल: मुराद ये नहीं हमको किसी से डरना है

1212 1122 1212 22/112मुराद ये नहीं हमको किसी से डरना हैमगर सँभल के रह-ए-ज़ीस्त से गुज़रना हैमैं…See More
1 hour ago
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . . विविध

दोहा सप्तक. . . . विविधकह दूँ मन की बात या, सुनूँ तुम्हारी बात ।क्या जाने कल वक्त के, कैसे हों…See More
1 hour ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी posted a blog post

ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)

122 - 122 - 122 - 122 जो उठते धुएँ को ही पहचान लेतेतो क्यूँ हम सरों पे ये ख़लजान लेते*न तिनके जलाते…See More
1 hour ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on Mayank Kumar Dwivedi's blog post ग़ज़ल
""रोज़ कहता हूँ जिसे मान लूँ मुर्दा कैसे" "
1 hour ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on Mayank Kumar Dwivedi's blog post ग़ज़ल
"जनाब मयंक जी ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है बधाई स्वीकार करें, गुणीजनों की बातों का संज्ञान…"
1 hour ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on Ashok Kumar Raktale's blog post मनहरण घनाक्षरी
"आदरणीय अशोक भाई , प्रवाहमय सुन्दर छंद रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई "
2 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]
"आदरणीय बागपतवी  भाई , ग़ज़ल पर उपस्थित हो उत्साह वर्धन करने के लिए आपका हार्दिक  आभार "
2 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on गिरिराज भंडारी's blog post एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]
"आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आदाब, ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएँ, गुणीजनों की इस्लाह से ग़ज़ल…"
2 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"आदरणीय शिज्जु "शकूर" साहिब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से…"
10 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"आदरणीय निलेश शेवगाँवकर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद, इस्लाह और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से…"
10 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी आदाब,  ग़ज़ल पर आपकी आमद बाइस-ए-शरफ़ है और आपकी तारीफें वो ए'ज़ाज़…"
11 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"आदरणीय योगराज भाईजी के प्रधान-सम्पादकत्व में अपेक्षानुरूप विवेकशील दृढ़ता के साथ उक्त जुगुप्साकारी…"
12 hours ago

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service