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चाँद बेनूर वफ़ा शर्म हया के हद में, (ग़ज़ल)

बहरे रमल मुसम्मन मखबून महजूफ,
2122 1122 1122 22,
इश्क तो पाक था बेदाद हुआ जाता है।
कातिले फ़ौज ही आजाद हुआ जाता है। 1
-------
चाँद बेनूर वफ़ा शर्म हया की हद में,
जुल्म कर अब्र ये आजाद हुआ जाता है। 2
------
लाख ही यत्न करो मर्ज बढ़ा ही जाए,
बात बेबात ही जेहाद हुआ जाता है। 3
------
हो रही खाक लगी आग बसारत देखो,
था बशर मोम का बर्बाद हुआ जाता है। 4
------
ऐ खुदा शाद अता रूह को फ़रमा देना,
अब जुदा जीभ से हर स्वाद हुआ जाता है। 5
-------
ओढ़कर दर्द ग़ज़ल झूम रही गा गाकर,
साज आवाज है इरशाद हुआ जाता है। 6
--------
छोड़ दो आप छड़ी अब तो चलाना हम पर,
जाहिरा नेक सबक याद हुआ जाता है। 7
--------
वे मिला आँख यूँ बेचैन किये जाएगें,
बेअसर प्यार में फरियाद हुआ जाता है। 8
_______________________
मौलिक एवम् अप्रकाशित रचना,

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Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on December 14, 2016 at 3:48pm
जी,आदरणीय रवि शुक्ला जी, तमाम मसवरे के बाद ग़ज़ल अब आपके सामने है अब आप अपनी राय से जरूर नवाजे आपकी ग़ज़ल पर आमद का बेहद शुक्रिया है।
Comment by Ravi Shukla on December 14, 2016 at 2:49pm

आदरणीय सुनील प्रसाद जी गजल का बढि़या प्रयास हुआ है बधाई स्‍वीकार करें । विद्वत जन कह ही चुके है इस पर उससे निश्चित ही लाभ होगा । 

Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on December 13, 2016 at 6:31pm
जी,जनाब मिथलेश जी, जनाब समर कबीर जी,अपनी समझ में काफ़िया 'द' बनाकर मैंने कुछ तब्दीली की थी जो उचित नहीं तो उस मिसरे पर कुछ और काम करता हूँ आप सबकी नेक नसीहत के लिए दिली शुक्रिया।
Comment by Samar kabeer on December 13, 2016 at 5:14pm
वाक़ई,'चाँद'और 'आज़ाद'क़ाफिये की तुकान्तता गलत है,मेरा भी ध्यान नहीं गया इस तरफ़, भाई मिथिलेश जी ठीक कहते हैं ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 13, 2016 at 4:16pm

आदरणीय सुनील प्रसाद जी, बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने, दाद और मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं. मुझे चाँद और आज़ाद का काफिया होना समझ नहीं आया. बाकी गुणीजन कह ही चुके हैं. सादर

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on December 12, 2016 at 8:25pm

जनाब सुनील प्रसाद साहिब , सुन्दर ग़ज़ल हुई है , दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं --
शेर 3 का सानी मिसरा बहर में नहीं है , शहर की जगह नगर कर लीजियेगा ---सादर

Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on December 12, 2016 at 6:44pm
जी शुक्रिया, जनाबेआली समर कबीर जी अदाब कुबूल फरमाए आपके रायशुमारी के बाद इस पर काम करना है आपकी नसीहत के साथ ही ये ग़ज़ल मुकम्मल हो पाएगी।
Comment by Samar kabeer on December 12, 2016 at 4:59pm
जनाब सुनील प्रसाद जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएं ।
दूसरे शैर में 'इमदाद'स्त्रीलिंग है, देखियेगा ।
आख़री शैर में 'इरसाद'को "इरशाद"कर लें ।

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