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झील ने कवि से पूछा, “तुम भी मेरी तरह अपना स्तर क्यूँ बनाये रखना चाहते हो? मेरी तो मज़बूरी है, मुझे ऊँचाइयों ने कैद कर रखा है इसलिए मैं बह नहीं सकती। तुम्हारी क्या मज़बूरी है?”

कवि को झटका लगा। उसे ऊँचाइयों ने कैद तो नहीं कर रखा था पर उसे ऊँचाइयों की आदत हो गई थी। तभी तो आजकल उसे अपनी कविताओं में ठहरे पानी जैसी बदबू आने लगी थी। कुछ क्षण बाद कवि ने झील से पूछा, “पर अपना स्तर गिराकर नीचे बहने में क्या लाभ है। इससे तो अच्छा है कि यही स्तर बनाये रखा जाय।”

झील बोली, “मेरा निजी लाभ तो कुछ नहीं है। पर मैं नीचे की तरफ बहती तो स्तर भले ही गिर जाता लेकिन मेरा पानी साफ हो जाता और ये इंसानों और जानवरों के बहुत काम आता। इससे धरती के नीचे का जलस्तर भी बढ़ जाता तथा मैं जिस ज़मीन से होकर मैं बहती उसे भी उपजाऊ बना देती।”

कवि बोला, “फिर भी स्तर तो तुम्हारा गिरता ही, बढ़ता तो नहीं न।”

झील मुस्कुराकर बोली, “गिरते गिरते एक दिन सागर तक पहुँचती। सूरज से युद्ध करती और इस युद्ध के कारण उत्पन्न ऊर्जा से भाप बनकर ऊपर उठती तथा बादल बनकर हवाओं की मदद से आसमान को छू लेती । पर मैं तो कैद हूँ, ऐसा नहीं कर सकती। लेकिन सुनो, तुम तो आज़ाद हो न।”

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(मौलक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 19, 2016 at 11:43pm
'झील के पानी' के प्रतीक के माध्यम से कवि और उसके स्वतंत्र लेखन की सार्थकता, उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए गागर में सागर रूपी बेहतरीन कसी हुई लघुकथा सृजन के लिए तहे दिल से बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी। शीर्षक भी बढ़िया है, लेकिन और बेहतर होना चाहिए था मेरे विचार से। सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on October 19, 2016 at 10:37am

वाह आ. धर्मेन्द्र जी सार्थक लघुकथा का सृजन किया है

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