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ख़ाना ख़राब (लघुकथा) जानकी बिष्ट वाही

दो दिन से भूखा-प्यासा कबीर धूल भरी पगडंडियों में भटक रहा है।अज़ब है उसकी जिंदगी भी,दुनिया वालों के लिए अनाथ और पागल, न उसकी कोई जाति न कोई धर्म,जाने किसने,कब ,कहाँ,उसका नाम कबीर रख दिया। लोगों के रहमों करम से मिल गया तो खा लिया, हिन्दू के घर से रोटी ली तो मुसलमान के घर से सब्जी, स्वाद में कोई फ़र्क नहीं। गाँव दर गाँव नापता।

इधर सरहद पर तनातनी के बाद मरघट सी ख़ामोशी हवाओं में सरसरा रही है।मीलों आदमजात की आमद दरफ्त नहीं हैं।बेज़ार भटकता कबीर उस गाँव में पहुँचा तो लगा मकानों के क़ब्रिस्तान में पहुंच गया हो।सब पर ताले जड़े हुए थे।
केवल मन्दिर मस्ज़िद और गुरुद्वारा खुले और विरान पड़े थे। ये देख हंसी का दौरा उसके ऊपर तारी हो गया।और आसमान को देख ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा -

" आज़मा ली इंसानी फ़ितरत ?
इन विरान मन्दिर मस्ज़िदों को देखकर मेरा दिल खुश हो गया, ...या ख़ुदा आज मेरी तरह तेरा भी खाना ख़राब हो गया।"


जानकी बिष्ट वाही
मौलिक एवम् अप्रकाशित
नॉएडा उत्तर प्रदेश

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Comment by rajesh kumari on October 7, 2016 at 8:47pm

वाह्ह  बहुत अच्छी लघु कथा अच्छा सन्देश देती हुई बधाई आपको जानकी वाही जी |

Comment by Janki wahie on October 7, 2016 at 11:50am
शुक्रिया कल्पना सखी।
Comment by Janki wahie on October 7, 2016 at 11:49am
सादर आभार आ.समर कबीर जी , कथा को सराहने के लिए और हौसला अफ़जाई के लिए।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 6, 2016 at 9:39pm

बढ़िया सन्देश देती हुई आपकी इस लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया जानकी जी |

Comment by Samar kabeer on October 6, 2016 at 8:38pm
मोहतरमा जानकी वाही जी आदाब ,अच्छा सन्देश दे रही है आपकी लघुकथा ,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Janki wahie on October 6, 2016 at 7:50pm
हार्दिक आभार आ. शिज्जू शकूर जी, कथा पर उपस्थित होकर हौसला अफ़जाई करने के लिए।
Comment by Janki wahie on October 6, 2016 at 7:47pm
हार्दिक आभार आ. हरकिशन ओझा जी कथा को समय देकर सराहना करने के लिए।

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Comment by शिज्जु "शकूर" on October 6, 2016 at 5:51pm

वाह आ. जानकी वाही जी ये लघुकथा आखिर में सटीक संदेश छोड़ गई; बधाई आपको इस रचना के लिए

Comment by harikishan ojha on October 6, 2016 at 3:50pm
बहुत ही तरासे हुए शब्दों से ओतप्रोत इस लाइन ने कथा को आकर्षक बना दिया
"इधर सरहद पर तनातनी के बाद मरघट सी ख़ामोशी हवाओं में सरसरा रही है।मीलों आदमजात की आमद दरफ्त नहीं हैं।"
बहुत ही सुन्दर कथा आ. जानकी बिष्ट वाही जी

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