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स्वाती की बूंदों सा टपका
स्नेह, बन गया मोती
विरहा चातक जलता फिरभी
बन दीपक की ज्योती...

नयनों में छवि छोड़ सदा को
चाँद बस गया दूर
ये चकोर-चित डूब गया अब
ताके उसका नूर.....

अगन बुझाये कौन  हिया की 
पिया बसे परदेश
चटक-चाँदनी में प्रीतम की
जाग रहे आवेश

एक बार जो आओ प्यारे
बांधूं स्नेह ज़ंजीर
तोड़ न पाओगे फिर उसको
कैसे दोगे पीर ...?

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Comment by Lata R.Ojha on June 27, 2011 at 12:59am
komal bhaavnaon ko kitne sundar shabdon mein piroya hai aapne :)

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on May 15, 2011 at 9:40pm
विरह बेदना से भरी यह रचना अत्यंत खुबसूरत बन पड़ी है ब्रिजेश भईया,

चटक-चाँदनी में प्रीतम की
जाग रहे आवेश

बहुत ही सुंदर भाव के साथ रची गई रचना , बहुत बहुत बधाई |
Comment by Abhinav Arun on May 15, 2011 at 9:07pm
सुन्दर और सशक्त अभिव्यक्ति बधाई इस प्रभावपूर्ण रचना के लिये |
Comment by sangeeta swarup on May 15, 2011 at 7:53pm
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति ...
Comment by आशीष यादव on May 15, 2011 at 4:38pm
viyog sringaar ka manohaari warnan. bahut bahut badhai sir.

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