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पुनर्नवा ( लघुकथा)

“चलो भैया घर नहीं चलना है क्या?”
साथी के स्वर सुन,सोच में डूबा मदन, चौंक कर बोला, “हाँ हाँ चलो भाई निकलतें हैं”
सब अपनी-अपनी साईकिल लेकर बढ़ चले, तो साथ ही काम करने वाला राघव, अपनी साईकिल मदन के आगे लगाकर बोला,
“चलिए दद्दा हम भी चलते हैं”
“जिनसे नाता था वो तो कब का छोड़ गए... तू कौन से जन्म रिश्ता निभा रहा है, रे?” साईकिल पर बैठते हुए उसने कहा.
साईकिल बढ़ाते हुए राघव बोला, “दद्दा, उम्र में छोटा हूँ, आपसे कहने का हक तो नहीं है. मगर...”
“पता है तू क्या कहेगा... मगर मैं रातों को जागता रहता हूँ. दो घूंट गले के नीचे उतार कर ही अपना दर्द भूल पाता हूँ.”
“जानता हूँ आपके साथ बहुत बुरा हुआ, वो मनहूस दिन भूलता ही नहीं है... तेज रफ्तार गाड़ी आई और आपकी दुनिया उजाड़ गई. ना जाने किस घड़ी में भौजी बच्चों को लेकर निकली थी घर से.”
“तू नहीं जानता... घर जाता हूँ तो अब भी उन तीनों की लाशें दिखाई देती हैं मुझे.”
“लेकिन दद्दा मैं...” राघव ने कहना चाहा, पर उसकी बात बीच ने ही काट मदन बोला,
“अब तू निकल! बहुरिया राह देखती होगी, यहाँ से तो मैं पैदल चला जाऊंगा.”
“नहीं, दद्दा मैं आपका सामान दिला कर, आपको घर पहुँचा कर ही जाऊँगा. बस आपका खाना बंधवा लेता हूँ.” ढाबा देख राघव ने कहा.
खाना ले भी ना पाया, तब तक मदन अपने लिए बोतल ले आया.
“सुनो दद्दा, तुमको हमारी कसम है खाना खा ज़रूर लेना.”
उसने भी सिर हिला कर हामी भरी.
घर के करीब पहुँचे ही थे, कि साईकिल डगमगा के रुक गई. एक रोता हुआ, बदहवास बच्चा साईकिल से टकरा कर गिर पड़ा था.
“अरे! ये बच्चा यहाँ इस सुनसान सड़क पर कहाँ से आ गया?”
“पता नहीं, जाने किसका बच्चा है, कैसे भटक कर यहाँ आ गया.” बच्चे के हाथ पाँव सहलाते हुए मदन ने कहा. “अरे इसको मैं देखता हूँ, तुमको बहुत देर हो गई है, तुम अब जाओ."
पर अगले ही पल जैसे याद आया, तो बच्चे के सर पर स्नेह से हाथ फिराते हुए बोला:

“हाँ ज़रा खाना पकड़ाते जाना."
राघव अपने घर की ओर बढ़ा ही था, कि साईकिल पर टंगे थैले के टकराने से ‘टन’ की आवाज़ हुई. आज पहली बार बोतल साईकिल पर ही टंगी छूट गई थी.

.
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Seema Singh on August 25, 2016 at 7:49pm
दिल से शुक्रिया बहन राहिला, आप हर रचना पर उपस्थित हो हमेशा हौसला बढाती हो। बहुत बहुत शुक्रिया।
Comment by Seema Singh on August 25, 2016 at 7:48pm
बहुत बहुत धन्यवाद आ० डॉ० आशुतोष जी।
Comment by Seema Singh on August 25, 2016 at 7:47pm
हृदय से धन्यवाद आ० राजेश दीदी।
Comment by Seema Singh on August 25, 2016 at 7:45pm
आभार आ० नीता जी
Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 25, 2016 at 4:00pm

आदरणीया सीमा जी .आपकी यह लघु कथा सम्बेद्नाओं से भरी हुयी है ..इस मार्मिक चित्रण से ओत प्रोत इस रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by Nita Kasar on August 25, 2016 at 3:33pm
एक तो दुखो का पहाड़ ऊपर गंदी लत,प्रतीकों के आधार पर लिखी कथा के लिये बधाई ।आद०सीमा सिंह जी ।
Comment by Rahila on August 24, 2016 at 9:11am
बहुत शानदार रचना आदरणीया दीदी ।खूब बधाई।सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 23, 2016 at 8:06pm

बहुत मार्मिक लघु कथा जिसकी दुनिया ही उजड़ गई हो उसकी दशा का बड़ी सुघड़ता से मनोविश्लेष्ण किया गया है बहुत बहुत बधाई सीमा जी  

Comment by Seema Singh on August 23, 2016 at 10:52am
हार्दिक आभार आ० जवाहरलाल जी, आपको कथा पसन्द आई।
Comment by Seema Singh on August 23, 2016 at 10:51am
बहुत बहुत शुक्रिया आ० प्रतिभा दीदी, आपकी सराहना से अतिरिक्त ऊर्जा मिलती है।

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