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कितना अच्छा होता .....

कितना अच्छा होता .....

कितना अच्छा लगता है
फर्श पर
चाबी के चलते खिलौने देखकर
एक ही गति
एक ही भाव
न किसी से कोई गिला
न शिकवा
ऐ ख़ुदा
कितना अच्छा होता
ग़र तूने मुझे भी
शून्य अहसासों का
खिलौना बनाया होता
अपना ही ग़म होता
अपनी ही ख़ुशी होती
न लबों से मुस्कराहट जाती
न आँखों में नमी होती
सब अपने होते
हकीकत की ज़मीं न होती
ख़्वाबों का जहां न होता
बस ऐ ख़ुदा
तूने हमें भी वो चाबी अता की होती
तो न कोई तड़प होती
न कोई अरमां होता

ये
दिल
दर्द से आशना होता

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on August 4, 2016 at 1:37pm

आदरणीय  सतविन्द्र कुमार जी प्रस्तुति में निहित भावों को मान देने का हार्दिक आभार। 

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on August 3, 2016 at 8:49pm
बेहतरीन भावों को शाब्दिक किया है आपने।सादर हार्दिक बधाई।
Comment by Sushil Sarna on August 3, 2016 at 4:29pm

आदरणीया कल्पना भट्ट जी प्रस्तुति में निहित भावों को मान देने का हार्दिक आभार। 

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 2, 2016 at 10:20pm
वाह । बहुत ही सुन्दर रचना हुई है आदरणीय । बधाई स्वीकारें ।

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