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ग़ज़ल मनोज अहसास(इस्लाह के लिए)

2122 2122 2122 212

मुस्कुराहट ही सदा मिलती खता के सामने
सारी दुनिया छोटी है माँ की अदा के सामने

छत नहीं मिलती है जिनको एक ऊँचाई के बाद
गिर भी जाती हैं वो दीवारें हवा के सामने

सिर्फ वो ही ढक सकेगा अपनी खुद्दारी का सर
दौलतें प्यारी नहीं जिसको अना के सामने

जिनकी दहशत से सितम से जल रहा सारा जहां
वो भला क्या मुँह दिखायेगें खुदा के सामने

आसमां सी सोच हो और बात हो ठहरी हुई
फिर ग़ज़ल मंज़ूर होती है दुआ के सामने

तेरे होठों से जो सुन लूँ इश्क में डूबी ग़ज़ल
ये इनायत है बड़ी मेरी वफ़ा के सामने

किस लिए तुम खोलते हो मेरे मर्ज़ो की किताब
नाम उसका ही लिखा है हर दवा के सामने

हर जगह मौजूद रहती जीने की सूरत कोई
आदमी का बस नहीं चलता कज़ा के सामने

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by मनोज अहसास on July 10, 2016 at 8:15pm
आदरणीय तेजवीर सिंह जी
आपकी उत्साह वर्धन करने प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार
मैं कम ही लिख पाता हूँ
इसलिए शायद आपकी नज़र में पहले कोई रचना नहीं आई
आपसे आगे भी मार्गदर्शन और उत्साह वर्धन की आशा है
सादर
Comment by मनोज अहसास on July 10, 2016 at 8:12pm
आदरणीय समर कबीर साहब
प्रणाम
बहुत बहुत आभार
आपके सुझाव पर विचार कर रहा हूँ
आपका मार्गदर्शन मेरे लिए बहुमूल्य है
सादर
Comment by TEJ VEER SINGH on July 10, 2016 at 6:40pm

हार्दिक बधाई आदरणीय मनोज कुमार जी! मुझे गज़ल के विषय में अधिक ज्ञान नहीं है परंतु फिर भी आपकी गज़ल मुझे बेहद पसंद आई!यह आपकी पहली रचना है जो मैंने पढ़ी!कुछ शेर तो वाकई लाज़वाब हैं!

जिनकी दहशत से सितम से जल रहा सारा जहां
वो भला क्या मुँह दिखायेगें खुदा के सामने

Comment by Samar kabeer on July 10, 2016 at 6:39pm
जनाब मनोज कुमार अहसास साहिब आदाब,ग़ज़ल उम्दा हुई है, शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
मतले के ऊला मिसरे में माँ के साथ 'अदा'शब्द मुनासिब नहीं लगता,'दुआ'करना कैसा रहेगा ?

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