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मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन

"तज़मीन बर ग़ज़ल हज़रत सय्यद रफ़ीक़ अहमद "क़मर" उज्जैनी साहिब"

ख़ज़ाँ देखी कभी मौसम सुहाना हमने देखा है
अँधेरा हमने देखा है,उजाला हमने देखा है
फ़सुर्दा गुल कली का मुस्कुराना हमने देखा है
"ग़मों की रात ख़ुशियों का सवेरा हमने देखा है
हमें देखो कि हर रंग-ए-ज़माना हमने देखा है"

_____

वो मंज़र जब कि माँओं से जुदा होने लगे बच्चे
वो दिन भी याद है जब फूल से मुर्झा गये चहरे
लहू से सुर्ख़ थे दरिया,गली,बाज़ार और कूचे
"हज़ारों आफ़तें टूटीं, हज़ारों हादसे गुज़रे
न पूछो दौर-ए-आज़ादी में क्या क्या हमने देखा है"
_____

बताओ किस तरह बर्बादियों का ये समाँ देखें
कली को फूल को भँवरों को हम मातम कुनाँ देखें
यहाँ क्या देखने को रह गया है,क्या यहाँ देखें
"अब इन आँखों से क्या वीरानीए दौर-ए-ख़ज़ाँ देखें
जिन आँखों से बहारों का ज़माना हम ने देखा है"
_____

बजा है दोस्तों इनकी शिकायत हम समझते हैं
हमें मालूम है इसकी हक़ीक़त हम समझते हैं
नहीं समझोगे तुम इनकी मुसीबत हम समझते हैं
"ग़रीबों को है कयूँ दुनिया से नफ़रत हम समझते हैं
ग़रीबों से सुलूक-ए-अह्ल-ए-दुनिया हम ने देखा है"
_____

बग़ावत की "समर" हर सम्त से आवाज़ उठ्ठेगी
सदाए-बैकस-ओ-मजबूर ऐसा रंग लाएगी
हक़ीक़त है,ज़माने की रविश कुछ ऐसे बदलेगी
" "क़मर" इक दिन बुलंदी पस्तियों के पाँव चूमेगी
कि यूँ भी इन्क़िलाब-ए-नज़्म-ए- दुनिया हम ने देखा है"

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment by गिरिराज भंडारी on May 29, 2016 at 9:07pm

क्या बात है , आदरणीय समर भाई , बेमिसाल तज़मीन किया है आपने , एक नई विधा की जानकारी उदाहरण सहित हो गई । दिल से मुबारकबाद कुबूल कीजिये ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 29, 2016 at 8:55pm

बहुत खूब आदरणीय ...मात्राक्रम ..अरकान बाक़ी रह गए बस :) :)

Comment by Ashok Kumar Raktale on May 29, 2016 at 5:43pm

आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमस्कार, आपकी यह रचना तो बहुत खुबसूरत है. किन्तु इस रचना का क्या तरीका है कुछ रौशनी  डालें. सादर.

Comment by Anuj on May 29, 2016 at 5:15pm

इसे उस्तादी कहते है!

आदरणीय समर साहब शरारे भर दिए आपने !! क्या ग़ज़ल है और क्या तज़मीन !!!

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