कार से टकरा कर लहूलुहान हुए बासाहब से इंस्पेक्टर ने दोबारा पूछा , “ क्या सोचा है ? कार सुधराई के पैसा देना है या नहीं ?”
“साहब ! बहुत दर्द हो रहा है. अस्पताल ले चलिए.” वह घुटने संहाल कर बोला तो इंस्पेक्टर ने डपट दिया,“अबे साले ! मैं जो पूछ रहा हूँ, उस का जवाब दे ?” कहते हुए जमीन पर लट्ठ दे मारा.
“साहब ! मेरा जुर्म क्या है ? मैं तो रोड़ किनारे बैठा था. गाड़ी तो लड़की चला रही थी. उसी ने मुझे टक्कर मारी है. साहब मुझे छोड़ दीजिए. ” वह हाथ जोड़ते हुए धीरे से विनय करने लगा.
“जानता है ? वह किस की लड़की है ?”
“जी साहब. मैं नहीं जानता हूँ .”
“वह एसपी साहब की लड़की है. यदि कार सुधराई का पैसा नहीं दिया तो समझ कि तू ...”
इंस्पेक्टर साहब की बात पूरी नहीं हुई थी कि पास खड़ा सिपाही बोल पड़ा, “ साहब ! इस की हालत ख़राब है. छोड़ दीजिए बेचारे को. गरीब आदमी है. फिर साहब, हम इसे किस जुर्म में बंद करेंगे ?”
यह सुनते ही इंस्पेक्टर को करंट का झटका लगा, “ नौकरी करनी है या नहीं ? जानते हो आज शाम तक एक केस देना है. यदि वह नहीं मिला तो समझो नौकरी संकट में...” कहते हुए इंस्पेक्टर ने तिरछी निगाहों से बासाहब को देखा जो उन्हें दारू पी कर सड़क पर हंगामा करते नजर आ रहे थे.
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०३/०५/२०१६
(मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
एक ऐसी हकीकत जो प्रशासन के ललाट पर बदनुमा दाग़ की तरह है. लेकिन इस दाग़ से छुटकारा पाने की कोई कोशिश नहीं करना चाहता. प्रशासनिक उठाईगिरी को बेहतर शब्द देती हुई इस लघुकथा केलिए हार्दिक बधाई आदरणीय ओमप्रकाश जी.
शुभ-शुभ
हार्दिक बधाई आदरणीय ओम प्रकाश जी!पुलिसिया हथकंडों की अच्छी पोल खोली है!सुंदर प्रस्तुति!
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