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ग़ज़ल.....इस्लाह के लिए...मनोज अहसास

2122 2122 2122 212

फिर करीने से सजा लूँ मैं तेरी सौगात को
वेदना को कल्पना को इश्क़ को जज़्बात को

इसमें युग युग की विवशता है या कोई शाप है
छूने को साहित्य आतुर सत्ता वाली लात को

अपनी ही करनी का फल है ज़िन्दगी में हर सजा
उनको आँखों में बसाकर जागते हैं रात को

खुद के जैसा रह न पाये और जिन्दा भी रहे
इससे ज्यादा चोट क्या है आदमी की जात को

दूजे पलड़े में सजेगी फलसफा ए ज़िन्दगी
एक पलड़े में चढ़ा दो इश्क़ की शह मात को

आदमी पहुँचा फलक पर पर न इतना कर सका
शाख से करके जुदा फिर से लगा दे पात को

सारी फारियादें हैं बेबस लफ्ज़ सारे बेअसर
ए मेरे मालिक समझ ले बेजुबां हालात को

इक हरे मैदान में ज्यों जाने के नक्शे कदम
रख सको तो रख लो दिल में यूँ मेरी हर बात को


मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by मनोज अहसास on February 11, 2016 at 5:50pm
बहुत आभार
आदरणीय सतविंदर कुमार जी
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on February 11, 2016 at 9:04am
सुन्दरम्
Comment by मनोज अहसास on February 10, 2016 at 6:05am
बहुत बहुत आभार मित्र
सादर
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 9, 2016 at 8:30pm
वाह! बहुत खूबसूरत ग़ज़ल।
दिल को छू गयी..
हार्दिक बधाई आपको आदरणीय अहसास जी!!
Comment by मनोज अहसास on February 8, 2016 at 6:27pm
बहुत दिनों बाद कुछ लिख पाया हूँ
मंच से आशीर्वाद चाहता हूँ
सादर

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