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सज़ा इश्क़ की बेवफ़ाई न दे (ग़ज़ल)

122 122 122 12

सज़ा इश्क़ की बेवफाई न दे
भले मौत दे पर जुदाई न दे

है मंज़ूर रहना हमें क़ैद में
वो आँखों से जबतक रिहाई न दे

ये इंसाफ़ कैसा है तेरा ख़ुदा
तू जाड़ा तो दे पर रजाई न दे

कहेगा जो सच तो कटेगी जुबां
छुपा बेगुनाही, सफाई न दे

मचा शोर कैसा शहर में, सदा
किसी को किसी की सुनाई न दे

बहुत दूर है मेरी मंज़िल अभी
सफ़र देख मेरा, बधाई न दे
===================

जयनित कुमार मेहता
(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by TEJ VEER SINGH on January 29, 2016 at 1:28pm

हार्दिक बधाई आदरणीया जयनित  जी!बहुत खूबसूरत गज़ल!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 29, 2016 at 12:15pm
बहुत सुन्दर अशआर कहे हैं,
हार्दिक बधाई इस ग़ज़ल पर
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 29, 2016 at 11:37am

बहुत खूब .....

Comment by Shyam Narain Verma on January 29, 2016 at 10:37am

बहुत सुन्दर ... सादर बधाई स्वीकारें

Comment by Ravi Shukla on January 29, 2016 at 10:34am

आदरणीय जयनित जी बहुत बढि़या ग़ज़ल कही है आपने दिली दाद कुबूल करें एक शेर पर ध्‍यान दिलाना चाहेंगे

मचा शोर कैसा शहर में, सदा इस मिसरे में ..... शहर में सदा  122 12   में बांधा है शहर का वज्‍न आपने 12 लिया है जबकि इसे शह्र  21 में लिया जाता है । हॉं ये बात सही है कि आम बोल चाल में शहर 12 ही बोला जा रहा है । दुष्‍यंत कुमार जी ने अपनी किताब की भूमिका में भी इस विषय पर चर्चा की थी कि शहर 12 के वज्न में क्‍यो स्‍वीकार नहीं किया जा सकता जबकि उनके कथना नुसार 

(मचा शोर कैसा नगर में सदा) श्‍ाहर को नगर कर के इस बहस को खत्‍म किया जा सकता है । खैर इस बहाने विद्वतजन की चर्चा से हमें और आपको और भी जानने और सीखने का मौका मिलेगा । एक कंकर फेंक दिया है हमने अब प्रतीक्षा है

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