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महज इक आदमी है तू - ग़ज़ल-(लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' )

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भला तू देखता क्यों है महज इस आदमी का रंग
दिखाई क्यों न देता  है धवल  जो दोस्ती  का रंग /1

सुना  है  खूब  भाता है  तुझे  तो  रंग भड़कीला
मगर जादा बिखेरे है  छटा सुन सादगी का रंग/2

किसी को जाम भाता है किसी को शबनमी बँूदें
किसे मालूम है कैसा भला इस तिश्नगी का रंग/3

महज इक आदमी है तू न ही हिंदू न ही मुस्लिम
करे बदरंग क्यों बतला तू बँटकर जिंदगी का रंग/4

अगर बँटना ही है तुझको तो  बँट तू रोशनी जैसा
कि बँट  रंगीन  हो  जाता  हमेशा  रोशनी का रंग/5

अभी तक मीर गालिब थे  चले  आए हैं साहिर भी
‘मुसाफिर’ खूब महफिल में जमेगा शायरी का रंग/6

मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 17, 2016 at 11:24am

आ0 भाई राम आसरे जी, उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 17, 2016 at 11:23am

आ0 राहिला जी उत्साहजनक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद।उपस्थिति बनाए रखें ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 17, 2016 at 11:23am

आ0 भाई रवि शुक्ला जी गजल की प्रशंसा के लिए आभार । अपको गजल पसंद आई लेखन सफल हुआ ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 17, 2016 at 11:23am

आ0 भाई मिथिलेश जी आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया से उत्साह दुगुना हुआ हार्दिक धन्यवाद । स्नेह बनाए रखें ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 17, 2016 at 11:22am

आ0 भाई मदन मोहन जी हार्दिक आभार ।

Comment by Ram Ashery on February 13, 2016 at 4:53pm

very nice

congratulation

Comment by Rahila on February 9, 2016 at 1:00pm
"अगर बँटना ही है तुझको तो बँट तू रोशनी जैसा
कि बँट रंगीन हो जाता हमेशा रोशनी का रंग/5"वाह. ..पूरी की ग़ज़ल शानदार हुई लेकिन इस शेर का जबाब नहीं । बहुत बधाई आपको आदरणीय धामी सर जी! । सादर
Comment by Ravi Shukla on January 29, 2016 at 11:03am

आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी, बहुत ही शनदार ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद कुबूल करें दो शेर बहुत ही ज्‍यादा पंसद आए

किसी को जाम भाता है किसी को शबनमी बँूदें
किसे मालूम है कैसा भला इस तिश्नगी का रंग  ..............बाकई लाज़वाब शेरऔर

अगर बँटना ही है तुझको तो  बँट तू रोशनी जैसा
कि बँट  रंगीन  हो  जाता  हमेशा  रोशनी का रंग  ....... बहुत ही बढि़या प्रतीक लिया है आपने । बधाई स्‍वीकार करें ।


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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 28, 2016 at 12:24am

आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी, बहुत ही शनदार ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद हाज़िर है-

भला तू देखता क्यों है महज इस आदमी का रंग
दिखाई क्यों न देता  है धवल  जो दोस्ती  का रंग /1................... शानदार मतला 

सुना  है  खूब  भाता है  तुझे  तो  रंग भड़कीला
मगर जादा बिखेरे है  छटा सुन सादगी का रंग/2.............. वाह वाह 

किसी को जाम भाता है किसी को शबनमी बँूदें
किसे मालूम है कैसा भला इस तिश्नगी का रंग/3...............लाज़वाब शेर 

महज इक आदमी है तू न ही हिंदू न ही मुस्लिम
करे बदरंग क्यों बतला तू बँटकर जिंदगी का रंग/4............. बहुत खूब 

अगर बँटना ही है तुझको तो  बँट तू रोशनी जैसा
कि बँट  रंगीन  हो  जाता  हमेशा  रोशनी का रंग/5.............अद्भुत शेर.... आपने भौतिकी सिद्धांत को प्रतीक रूप में अद्भुत प्रयोग किया है. इस शानदार ग़ज़ल पर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं.

Comment by Madan Mohan saxena on January 27, 2016 at 12:51pm

भला तू देखता क्यों है महज इस आदमी का रंग
दिखाई क्यों न देता है धवल जो दोस्ती का रंग /1

सुना है खूब भाता है तुझे तो रंग भड़कीला
मगर जादा बिखेरे है छटा सुन सादगी का रंग/2

किसी को जाम भाता है किसी को शबनमी बँूदें
किसे मालूम है कैसा भला इस तिश्नगी का रंग/3

महज इक आदमी है तू न ही हिंदू न ही मुस्लिम
करे बदरंग क्यों बतला तू बँटकर जिंदगी का रंग/4

अगर बँटना ही है तुझको तो बँट तू रोशनी जैसा
कि बँट रंगीन हो जाता हमेशा रोशनी का रंग/5

अभी तक मीर गालिब थे चले आए हैं साहिर भी
‘मुसाफिर’ खूब महफिल में जमेगा शायरी का रंग

शानदार ग़ज़ल

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