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खूब हुई है यार मुनादी-ग़ज़ल - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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सुख  की  बात  यही  है  केवल  म्यानों  में  तलवारें हैं
बरना  घर  के  ओने  कोने  दिखती   बस  तकरारें  हैं /1

खुद ही जानो खुद ही समझो उस तट क्या है हाल सनम
इस  तट   आँखों   देखी   इतनी   बस  टूटी  पतवारें  हैं /2

रोज वमन  विष का  होता  है  नफरत का दरिया बहता
यार अम्न को  लेकिन  बिछती  हर  सरहद  पर तारें हैं /3

रोज  निर्भया  हो  जाती  है रेपिष्टों  का  यार  शिकार
गाँव  नगर  रजधानी  तक  यूँ  कहने  को  सरकारें  हैं /4

खूब  हुई  है यार  मुनादी अच्छे  दिन  बाँटेंगे  खुशियाँ
अपने  हिस्से   में   तो  अब  भी  रोती   हुई  उधारें हैं /5

सारे  भाई  मिलकर  पहले  जिस  आँगन  में  रहते थे
देख  रहा  हूँ  आज  ‘मुसाफिर’  उस  आँगन  दीवारें  हैं /6

मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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Comment by TEJ VEER SINGH on January 19, 2016 at 1:04pm

हार्दिक बधाई अदरणीय लक्ष्मण धामी जी!बेहतरीन गज़ल!एक एक शेर लाज़वाब!आज के हालात का शानदार विश्लेषण!

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