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दुष्यंत कुमार को समर्पित मेरी एक ग़ज़ल

आपकी तालीम का हर अर्थ कुछ दोहरा तो है

आकाश पर बादल नहीं पर हर तरफ कोहरा तो है

 

बादशाहों की हमेशा ज़िन्दगी महफूज़ है

लड़ने-मरने के लिए शतरंज में मोहरा तो है

 

इस महल में अब खज़ाना तो नहीं बाकी रहा

द्वार पर दरबान है, संगीन का पहरा तो है

 

शोर करना हर नदी की चाहे हो आदत सही

ये समंदर हर नदी से आज भी गहरा तो है

 

तुम क़सीदे खूब पढ़ लो पर यहाँ हर आदमी

हो न गूंगा आज लेकिन, आज भी बहरा तो है

 

तुमने कांटे साफ़ कर आसां किया चाहे सफ़र

दूर तक है धूप अब भी, दूर तक सहरा तो है

 

"मौलिक व अप्रकाशित"

- डॉ. राकेश जोशी

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Comment by Dr. Rakesh Joshi on January 5, 2016 at 8:40pm
आदरणीय सतविंदर कुमार जी,
सादर नमस्कार.
मेरी ग़ज़ल पर आपकी टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद.
मैं आपका आभारी हूँ.
सादर,
डॉ. राकेश जोशी
Comment by Sushil Sarna on January 5, 2016 at 7:48pm

आदरणीय राकेश जी भावों का अद्भुत संगम है आपकी ये ग़ज़ल। हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय इस प्रस्तुति पर विशेषकर इस शे'र के लिए।

शोर करना हर नदी की चाहे हो आदत सही
ये समंदर हर नदी से आज भी गहरा तो है

Comment by Samar kabeer on January 5, 2016 at 5:31pm
जनाब राकेश जोशी जी आदाब,ग़ज़ल बहुत शानदार है आपकी,मोहरा,कोहरा,दोहरा के साथ गहरा,पहरा के क़ाफ़िए क्या उचित हैं? "कशीदा" सही शब्द है "क़सीदा"
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on January 5, 2016 at 1:59pm
बहुत गहरी बातें कह दी हैं सम्पूर्ण ग़ज़ल में ।तहे दिल बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय डॉ. राकेश जोशी जी।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on January 5, 2016 at 1:25pm
शोर करना हर नदी की चाहे हो आदत सही
ये समंदर हर नदी से आज भी गहरा तो है

तुम कशीदे खूब पढ़ लो पर यहाँ हर आदमी
हो न गूंगा आज लेकिन, आज भी बहरा तो है

ख़ूबसूरत अंदाज़-ए-बयाँ है आपका।बधाई आदरणीय

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