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झील ठहरी है बहुत वक्त से कंकड़ मारो -( ग़ज़ल ) -लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

2122    1122    1122    22

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प्यार  कहते  हैं  कि  हर  चाव  बदल  देता है
एक  मरहम  की  तरह   घाव  बदल  देता है /1

अश्क लेकर  भी किसी को न  तू रोते दिखना
कहकहा  आँख  का   बरताव   बदल   देता है /2

झील  ठहरी  है  बहुत  वक्त से  कंकड़ मारो
एक  कंकड़   ही  तो   ठहराव   बदल  देता  है /3

अजनवी  सोच  के   यूँ    दूर  न   बैठो  हमसे  
मिलना  जुलना  ही  मनोभाव  बदल  देता   है /4

माँ की ममता से मिली सीख ये  हमको यारो
हर किसी  पीर  को  सहलाव   बदल   देता है /5

काम आता न हो चाहे कि करो  कोशिश कुछ
हर  कमी   रोज  का   दुहराव  बदल   देता है /6


22 दिसम्बर 2015
मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

Views: 968

Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 24, 2015 at 10:48am

दोष हर रोज का दुहराव बदल देता है

.....वाह.....सोने पर सुहागा .....इस बेहतरीन सुझाव के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आ० भाई मिथिलेश जी ...स्नेह बनाये रखें l

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 24, 2015 at 10:46am

आ० भाई रवि जी आपका कथन सत्य है ,पर कई बार मैने बातचीत में बदल शब्द का प्रयोग सुधार के सन्दर्भ में भी होते देखा है और यहाँ भी इसी सन्दर्भ में किया है ...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 24, 2015 at 5:01am

शानदार ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई

//दोष हर रोज का दुहराव बदल देता है // किया जा सकता है सादर 

Comment by Ravi Shukla on December 23, 2015 at 12:23pm

आदरणीय लक्ष्‍मण जी अच्‍छी ग़ज़ल के लिये दाद कुबूल कीजिये बहुत बहुत बधाई

मतले के सानी में भाव समझ आ रहा है पर शब्‍दों से एेसा हमें नही लगा घाव बदलना मतलब घाव तो रह ही गया मरहम घाव को ठीक कर देता है उसकी सूरत बदल जाती है इस लिहाज  से मतले का सानी हमें थोड़ा असहज लग रहा है । अाखिरी शेर में कमी दोहराव बदल देती है पर रदीफ के कारण आपने उसे कमी को बदल देता है के रूप में प्रयुक्‍त किया है । बाकी सभी शेर के श्‍ाानदार कथ्‍य के लिये बहुत बहुत बधाई स्‍वीकार करें । यदि हमारा सोचना गलत हो तो कृपया मार्गदर्शन अवश्‍य दीजियेगा ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 23, 2015 at 11:17am

आदरणीय भाई धर्मेन्द्र जी ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक  धन्यवाद.

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 23, 2015 at 11:16am

आदरणीय भाई सूर्या जी ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक  धन्यवाद.

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 23, 2015 at 11:14am

आदरणीय पंकज भाई ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए धन्यवाद.

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 23, 2015 at 11:12am

आदरणिया प्रतिभा बहन ग़ज़ल का अनुमोदन करने के लिए आभार . 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 23, 2015 at 10:07am
अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय मुसाफिर साहब, दाद कुबूल कीजिए
Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on December 22, 2015 at 11:20pm

कहकहा  आँख  का   बरताव   बदल   देता है...वाह वाह मुसाफिर साहिब क्या कहने। 

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