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तसव्वुफ़ का है आलम, जिंदगी रोने नहीं देती--(ग़ज़ल)-- मिथिलेश वामनकर

1222—1222—1222—1222

 

तसव्वुफ़ का है आलम, जिंदगी रोने नहीं देती

ये मैली-सी चदरिया मोह की धोने नहीं देती

 

दिखे जो नींद में यारो, वो सपने हो नहीं सकते

ये वो शै है......कभी जो आपको सोने नहीं देती

 

ख़ुशी आई है घर में तो पसे-गम भी यकीनन है

कभी साया अलग  खुद रौशनी होने नहीं देती

 

न करती फ़िक्र माज़ी की, न रखती हैं यकीं कल पे

सफल वो जिंदगी जो आज को खोने नहीं देती

 

तमन्नाओं के गुलशन में उगा लूं ख्व़ाब मैं लेकिन

मेरी गैरत की पथरीली जमीं बोने नहीं देती

 

कज़ा को आज समझा है बड़ी ही नेक दिल साहिब

बदी का बोझ बढ़ जाए तो ये ढोने नहीं देती

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 8, 2015 at 9:52pm

आदरणीया राहिला जी, ग़ज़ल पर आपका मुखर अनुमोदन पाकर दिल खुश हो गया. इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार

Comment by Rahila on November 8, 2015 at 8:55pm
बेहतरीन ग़ज़ल आदरणीय मिथलेश जी! और हमारे जैसे नवांकुरों के लिये बेशकीमती उदाहरण इस विधा को जानने और समझने के लिये । बहुत बधाई । सादर नमन ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 8, 2015 at 6:23pm
आदरणीय मोहन बेगोवाल सर ग़ज़ल के प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 8, 2015 at 6:21pm
आदरणीय रवि जी ग़ज़ल पर आपकी सार्थक प्रतिक्रिया और शानदार मार्गदर्शन पाकर दिल खुश हो गया। आपने मिसरे में बहुत बढ़िया सुधार बताया है। वह शब्दशः स्वीकार करने योग्य है। आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा कहना सार्थक हुआ। ग़ज़ल के प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार बहुत बहुत धन्यवाद

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 8, 2015 at 6:17pm
आदरणीय गिरिराज सर, ग़ज़ल पर आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया और मार्गदर्शन पाकर अभिभूत हूँ। आपके मार्गदर्शन अनुसार पुनः प्रयास करता हूँ। ग़ज़ल के प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार नमन

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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 8, 2015 at 6:14pm
आदरणीय श्याम नरेन् जी ग़ज़ल के प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार

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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 8, 2015 at 6:13pm
आदरणीय आमोद जी ग़ज़ल के प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 8, 2015 at 6:12pm
आदरणीय मनन जी ग़ज़ल के प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
Comment by Ravi Shukla on November 8, 2015 at 9:37am
आदरणीय मिथिलेशजी सुप्रभात नए अंदाज़ की आपकी ग़ज़ल पढ़ के सुकून हासिल हुआ फिलासफी हमे भी पसंद है ।
मतला शानदार है बधाई स्वीकार करिये ।
पहला शेर बहुत बढ़िया डा कलाम याद आ गए शानदार विचार है ।
दुसरे शेर के उला पर गिरिराज जी की बात से हम भी सहमत है हालांकि ज़रा सा नेगेटिव शेड है ऊला में पर सानी की निस्बत बिना इस शेड के नही हो सकती, पर सानी की जितनी तारीफ की जाये उतनी कम है एक शास्वत सत्य रौशनी से ही साया होता है रौशनी को अपने अस्तित्व के लिए अँधेरे की जरूरत होती है । (ख़ुशी आई है घर में तो यकीनन साथ गम होगा )
इसके बाद वाले शेर में वर्तमान में जीने के दर्शन को तरजीह देता विचार शुदार तरीके से कहा गया है ।
अगला शेर अपनी अपने कथ्य और शिल्प में पूरी संजीसगि और नफासत से साथ पेश हुआ है दिली मुबारक बाद इसके लिएआखरी शेर भी अपने सन्देश के साथ मौजूद है
आखिरी शेर भी बहुत खूब है आदरणीय गिरिराजजी के सुझाव पर विचार करें तो प्रवाह और खूबसूरती और भी बढ़ सकती है इस सुन्दर और भाव पूर्ण ग़ज़ल के ढेर सारी शुभकामनायें स्वीकार करिये । सादर
Comment by मोहन बेगोवाल on November 7, 2015 at 7:56pm

  आदरणीय मिथिलेश जी, बहुत अच्छे अशआर पढ़ने को मिले , बधाई हो 

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