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जिसमें जितनी कीमत उतनी- पंकज मिश्र

16 रुक्नी ग़ज़ल
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नफ़रत का बाज़ार सजा है; हममें जितनी, कीमत उतनी।
इच्छाओं का दाम लगा है, खुदमें जितनी, कीमत उतनी।।

इस पुस्तक के पन्नों पर तुम, नैतिकता क्यों कर लिखते हो।
मानवता की छद्म व्याख्या, इसमें जितनी, कीमत उतनी।।

व्यवहार और समाचार में, सिर्फ एक सम्बन्ध यही है।
नमक मिर्च की हुई मिलावट, इनमें जितनी, कीमत उतनी।।

कलयुग वाले महाराज के, दरबारी मानक बदले हैं।
चाटुकारिता भरी हुई है, जिसमें जितनी, कीमत उतनी।।

पंकज खुद में झूठी ख़ुश्बू, तुम भी भर लो अभी समय है।
इस युग की है यही हक़ीक़त, तुझमें जितनी, कीमत उतनी।।

~~~~~~~~~~~~~~~~~|||||||~~~~~~~~~~~~~~~
मौलिक एवम् अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Rahila on November 7, 2015 at 3:23pm
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल आदरणीय पंकज जी! हार्दिक बधाई आपको ।
Comment by Shyam Narain Verma on November 7, 2015 at 3:09pm

हार्दिक बधाई स्वीकारें इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए

Comment by amod shrivastav (bindouri) on November 7, 2015 at 2:16pm
वाह आ पंकज भैया बधाई

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