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होंठों पे जिनके दीप जलाने की बात है--- (ग़ज़ल)--- मिथिलेश वामनकर

221 2121 1221 212

 

होंठों पे जिनके दीप जलाने की बात है

सीने में उनके आग लगाने की बात है

 

झाड़ी के फैलते हुए हाथों को काट कर

कहते है सिर्फ बाग़ सजाने की बात है

 

क्या मुफ़लिसी वतन की सियासत से जाएगी?

ये परबतों पे दाल गलाने की बात है

 

अहले-वतन के काफिले होंगे गली-गली

बस इक दबा सवाल उठाने की बात है

 

फाकों में देखना है अगर मस्तियाँ तुम्हे

रोटी की गोल ढपली बजाने की बात है

 

जब तक चले, सफ़र में रहे, तो ये जिंदगी

ठहरी तो समझो मौत के आने बात है

 

खुद ही उतर के आएँगें तारे जमीन पर

बस आसमां से चाँद हटाने की बात है

 

कश्मीर पर हुजूर खुलेआम कह दिया

घर की अदावतें क्या बताने की बात है?

 

‘मिथिलेश’ मंच पे है मगर बोलता नहीं

परदा यहीं पे आज गिराने की बात है

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 6, 2015 at 8:22pm

आदरणीय नादिर खान सर,  आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ.  इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 6, 2015 at 8:21pm

आदरणीय रवि जी ग़ज़ल पर आपका मुखर अनुमोदन और सार्थक प्रतिक्रिया पाकर अभिभूत हूँ. आपसे शेर दर शेर उत्साहवर्धन पाकर दिल खुश हो गया. बहुत बहुत आभार हार्दिक धन्यवाद आपका.

Comment by नादिर ख़ान on November 6, 2015 at 5:02pm

आदरणीय मिथिलेश जी शानदार ग़ज़ल के लिए दिल से दाद क़ुबूल करें , बहुत ही उच्च कोटि की  ग़ज़ल हुयी है । बधाई ही बधाई

Comment by Ravi Shukla on November 6, 2015 at 12:40pm

आदरणीय मिथिलेश जी कल मोबाईल से आपकी इस ग़ज़ल पर एक विस्‍तृत वार्ता लिखी थी किन्‍तु तकनीकी कारणों से अपलोड ही नहीं आई । आज फिर कोशिश है देखिये कल वाले भाव और शब्‍द मिलते हे कि नहीं

खूबसूरत मतले के साथ गजल शुरू होती है जो शेर दर शेर अपने मकाम तक पंहुचती है आपने कुछ महावरों का इस ग़जल मे  बहत ही सुन्‍दर प्रयोग किया है उनके लिये बधाई स्‍व्‍ीकार करें

क्या मुफ़लिसी वतन की सियासत से जाएगी?

ये परबतों पे दाल गलाने की बात है  ...मुल्‍क की मुफलिसी की दाल पर्वतो पर तो क्‍या मैदानों में भी नहीं गलने वाली  सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति

अहले-वतन के काफिले होंगे गली-गली

बस इक दबा सवाल उठाने की बात है   वाह वाह आपने हर पाठक के सामने एक खुला मैदान छोड़ दिया हे देखो कौनसा सवाल है जेह्न में उसी के अनुसार शेर अपने स्‍वरूप के साथ पाठक तक पंहुचता है बने बनाये चश्‍मे से देखने का अवसर ही नहीं दिया आपने  बहुत खूब बधाई स्‍व्‍ीकार करे

खुद ही उतर के आएँगें तारे जमीन पर

बस आसमां से चाँद हटाने की बात है    हा हा हा मिथिलेश जी हम तो चांद को तारों पर तरजीह देगे क्‍योंक‍ि चांद हमारे करीब है और उससे निस्‍बत भी तारों के मुकाबिल ज्‍यादा है ये ठीक है कि चांद सूरज नाम के तारे से ही रोश्‍ान है पर उसकी अपनी तासीर सूरज की गर्मी को ठंडा कर देती है । अपनी अपनी पंसद है । मेहदी हसन साहब की गाई एक ग़ज़ल का शेर याद आ रहा है

अपने अपने हौसले अपनी तलब की बात है

चून लिया हमने उन्‍हें बाकी जहां रहने दिया   बहर हाल आपके शेर के लिये दाद तो बनती हे कुबूल करें

‘मिथिलेश’ मंच पे है मगर बोलता नहीं

परदा यहीं पे आज गिराने की बात है...  एकऔर मुहावरा छिपा हुआ सा  बहुत खूब जनाब मकते के लिये भी दाद हाजिर है ।  पर्दा गिराने के बाद मंच पर कर्टन काल भी तो होता है और जब आपको तआरुफ के लिये बुलाया जाएगा तो दर्शकों दीर्घा से हम यही कहेगे ...मुकर्रर मुकर्रर ।  सुन्‍दर ग़ज़ल के लिये शेर दर शेर बधाई सवीकार करें । सादर


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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 6, 2015 at 11:57am

आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 6, 2015 at 11:56am

आदरणीय  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 6, 2015 at 11:56am

आदरणीया राजेश दीदी, आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ. अशआर कोट करने लायक हुए, जानकार ख़ुशी हुई.  इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 6, 2015 at 11:55am

आदरणीय सतविंदर जी इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 6, 2015 at 11:54am

आदरणीय मंसूरजी इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 6, 2015 at 10:44am

आ० भाई मिथिलेश जी इस बोलती ग़ज़ल के लिए कोटि कोटि बधाई l

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