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साक्षी ने सारी सीमाएं विवाह पूर्व ही तोड़ दी थी ।विवश हो उसके प्रेम विवाह को सहमति देनी पड़ी लेकिन विवाह के मात्र आठ माह बाद तीन माह की पुत्री को लेकर लौट आयी थी । बिटिया तीन वर्ष की हो गयी थी ।साक्षी ने पुनः विवाह कर लिया बेटी ननिहाल में ही पल रही थी।इसी बात से संतोष था की वह ससुराल में रम जाय लेकिन -
" माँ अब मैं उस घर नहीं जाउंगी।"

"क्यों ? अब क्या हो गया ?"

"उसे पत्नी नहीं माँ के लिए नौकरानी चाहिए थी और वह तो पूरा कंगला हैं ,मैंने तो उसकी चमक देख ब्याह किया था।"

माँ स्वयं ही बड़बड़ा उठी ,वो कंगला हैं की नहीं पता नहीं परन्तु संस्कारों के मामले में तुम अवश्य कंगली हो ।

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by pratibha pande on October 29, 2015 at 9:15am

  संस्कार का अर्थ है सही गलत का ज्ञान होना और ये   लड़के  लड़की दोनों के लिए बराबर आवश्यक है ,माँ  का दायित्व सही संस्कार देना तो है ही पर अगर बच्चे भटक जाएँ है तो  उन्हें सँभालने की कोशिश करना भी है ,  अच्छी कथा के लिए बधाई स्वीकारें आदरणीया अर्चना जी 

Comment by Nita Kasar on October 29, 2015 at 5:38am
माँ तो अच्छे संस्कार ही देती है,ये तो संतान की संगत,सोहबत का,महत्वाकांक्षाओं का असर ही है जो सुसंस्कारों का जुलूस निकाल देती है,बिगड़ैल माँ इतना कहने से गुरेज़ करती।कथा के ज़रिये आज केबदलते सामाजिक परिवेश पर उम्दा प्रहार किया है आपने बधाईयां आपको आद०अर्चना त्रिपाठी जी ।
Comment by Archana Tripathi on October 29, 2015 at 12:39am
आदरणीय कांता जी,जाहिर हैं की ऐसे संस्कार माँ अपनी संतान को नहीं देती।यह तो तीव्र गति से बदलते सामजिक परिवेश का परिणाम हैं। सादर
Comment by Archana Tripathi on October 29, 2015 at 12:36am
आदरणीय सुनील सरना जी ,वाकई में आज संस्कारों का कंगलापन समाज को खोखला कर रहे हैं ।सादर धन्यवाद आपका
Comment by Archana Tripathi on October 29, 2015 at 12:32am
शुक्रिया आदरणीय राहिला जी ,हार्दिक धन्यवाद
Comment by Archana Tripathi on October 29, 2015 at 12:31am
ह्र्दयतल से धन्यवाद आदरणीय मित्र शेख सहजाद उस्मानी जी ,आपकी समीक्षात्मक टिप्पणी उत्कृष्ट मार्गदर्शन करती हैं ।सादर
Comment by Archana Tripathi on October 29, 2015 at 12:26am
हार्दिक धन्यवाद मिथिलेश वामनकर जी ,उत्साहवर्धन के लिए
Comment by Archana Tripathi on October 29, 2015 at 12:25am
हार्दिक धन्यवाद कथा और अमूल्य समय देने और समीक्षात्मक टिप्पणी के लिए आदरणीय तेज वीर सिंह जी ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 28, 2015 at 10:13pm

 अादरणीया अर्चना जी बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है. हार्दिक बधाई 

Comment by kanta roy on October 28, 2015 at 9:06pm
संस्कार से कंगली होना एक बेहद ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है । इन संस्कारों का प्रादुर्भाव कहाँ से हुआ ?
इतना कहकर क्या माँ छूट सकती है अपने देयता के दायित्व से ?
एक गम्भीर प्रश्न छोडती हुई ।
बधाई अादरणीया अर्चना जी इस तीक्ष्ण लघुकथा के लिए ।

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