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ज़रा सी बात पे फिर आज मुँह फुला आया-- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

 

1212--- 1122---1212---22

 

अगर नहीं था यकीं क्यों हलफ उठा आया

ज़रा सी बात पे फिर आज मुँह फुला आया

 

पहाड़ कौन सा टूटा, जो तेरी बातों में

मैं अपनी बात भी उसको अगर सुना आया

 

जो कब्र सा है अकेला, मज़ार सा तन्हां

वो मेरे घर का पता इस तरह बता आया

 

वे आदमी हैं, शिकायत मगर नहीं करते

बड़े जतन से चले तब ये सिलसिला आया

 

मैं रौशनी के भरोसे था अब तलक लेकिन

वो एक शाम मेरे नाम से लिखा आया

 

उसे जरा भी सलीका नहीं इबादत का

हवन किया भी तो अपना ही घर जला आया

 

तुम्हारे झूठ से कितना हुआ पशेमाँ मैं

तुम्हारे सच से भी परदा मगर उठा आया

 

वो हँस रहा था मेरे दर्द के मुक़ाबिल तो

मैं वाकिया था उसे आइना दिखा आया

 

वहाँ पे लौट के पंछी कभी नहीं आए

अजीब तौर से बरगद कोई हिला आया

 

नसीब आस का इतना बिगड़ गया कैसे ?

चमन के साथ में इस बार हादसा आया

 

जो शाम तक भी मसाइल पे कुछ न बोला तो

मैं आफ़ताब समंदर में ही गिरा आया

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 11, 2015 at 11:33am

आदरणीय समर कबीर जी, तक़ाबुल-ए-रदीफ़ का शिकार शेर मैं खुद सुधार नहीं पाया इसलिए वैसे ही पोस्ट कर दिया. आपसे मार्गदर्शन का निवेदन  है.  आप जैसे उस्ताद से दुआएं पाकर मुग्ध हूँ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद, सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 11, 2015 at 11:29am

आदरणीया राजेश दीदी, गलती तो रोज़ करता हूँ, हर ग़ज़ल में कुछ न कुछ रह ही जाता है. लेकिन ये ग़ज़ल 20 दिन तक होल्ड पर रही और परिणाम वही .... 

खैर आपकी सूक्ष्म दृष्टि से कभी कुछ नहीं छूट सकता और इस बहाने आपका मार्गदर्शन भी मिल जाता है. 

सादर 


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Comment by rajesh kumari on September 11, 2015 at 11:19am

वैसे मुझे पहले ही लग रहा था की किसी जल्दी के कारण ही ये त्रुटी छूट गई  होगी वरना आप जैसे ग़ज़लकार से गलती हो जाए ये विश्वास से परे है :-)))


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 11, 2015 at 11:18am

आदरणीय गिरिराज सर, 'था' करना उचित होगा. आपके मार्गदर्शन अनुसार सुधार करता हूँ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद, सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 11, 2015 at 11:13am

आदरणीया राजेश दीदी, कुछ ज्यादा ही सावधानी बरत ली मैंने. जिस ग़ज़ल को संशोधित किया था उसे पोस्ट नहीं कर मूल ग़ज़ल को ही पोस्ट कर दिया. आपके मार्गदर्शन अनुसार त्रुटी सुधारता हूँ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद, सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 11, 2015 at 11:00am

आदरणीय शिज्जु भाई जी, उक्त त्रुटियाँ सुधारता हूँ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद, सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 11, 2015 at 11:00am

आदरणीय रवि जी आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद, सादर 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 11, 2015 at 10:59am

आदरणीय श्याम नरेन् जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद, सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 11, 2015 at 10:59am

आदरणीय दिनेश भाई जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद, सादर 

Comment by Samar kabeer on September 10, 2015 at 10:59pm
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,बहुत ही अच्छी ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को,ख़ुदा करे यह सिलसिला इसी तरह जारी रहे,दाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।
जिन मिसरों पर मैं कुछ कहना चाहता था वो बहना राजेश कुमारी जी पहले ही कह चुकी हैं और उसे दुरुस्त भी कर दिया है,एक शैर की तरफ़ मैं आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ :-

"उसे जरा भी सलीका नहीं इबादत का
हवन किया भी तो अपना ही घर जला आया"

ये शैर तक़ाबुल-ए-रदीफ़ का शिकार हो रहा है,देख लीजियेगा ।

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