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पता(लघु कथा)
-आप मुम्बई में रहते हो?मैंने तो कुछ और सोचा था।मैं भी तो मुम्बई में ही हूँ।
-अच्छा,कहाँ?
-एन एम
-वो क्या हुआ?
-मुम्बईकर को तो जानना चाहिये
-अच्छा,बताइये
-लेकिन यह आपको पता होना चाहिए
-अपना पता न बताने के बहुत-से बहाने होते हैं।
-आप एन एम नहीं जानते,तो मुम्बई में क्या जानते हैं?
-दोस्तों को जो अपने पते कभी कुछ,तो कभी कुछ बताते हैं ।
-देखिये,कोल्हापुर तो मेरा मायका है,मुम्बई तो ससुराल हुई।
फिर किंचित ख़ामोशी के उपरांत फेसबुक पर संदेश तैरता है
-तो बाय कहें क्या?
-ओके,बाय-बाय।
फिर संपर्क भंग हो जाता है।नवी मुम्बई अनकही रह जाती है।
"मौलिक व अप्रकाशित"@मनन

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Comment by Manan Kumar singh on September 3, 2015 at 1:51pm
आदरणीय प्रतिभाजी,रचना की तः तक जाने का आपका प्रयास निश्चित तौर पर रचना को अर्थ पूर्ण साबित करता है,प्रेरणा देने के लिए आपका बहुत आभार मेरी तरफ से।
Comment by pratibha pande on September 3, 2015 at 12:37pm
बहुत अच्छी ,और अलग सी ,रोचक बातचीत 'नवी मुंबई अनकही रह जाती है ' कितनी सारी बातें छोड़ दीं,आपने एक पाठक के अपने अपने ढंग से समझने के लिए , बधाई इस सार्थक रचना के लिए

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