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ग़ज़ल ,,,,,,,,, गुमनाम पिथौरागढ़ी ,,,,,,,

१२१२  १२१२  १२१२  १२१२

हरेक संत देखिये कतार ही कतार है

ये ज़िन्दगी बिमार है ये ज़िन्दगी बिमार है

अभी जो लूट है मची कहो ये कौन रोके अब

यहाँ पे भ्रष्ट आदमी लगे कि बेशुमार है

सवाल आँख ने किया जवाब आँख ने दिया

बे - लफ्ज़ बात हो गयी अजब यही तो प्यार है

जो कर्ज की मियाद थी वो ख़त्म ही नहीं हुई

लगे कि मेरे भाग में उधार ही उधार है

मुहासे जिनको कह  रहे शबाब की हैं चिठ्ठियाँ

कि जान लो वो हुश्न अब दो चार गाम पार है

ये ज़िन्दगी रखी रही हमेशा आंच पर चढ़ी

ये ज़िन्दगी को कह रहा कौन शानदार है

मौलिक व अप्रकाशित

गुमनाम पिथौरागढ़ी

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Comment

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Comment by gumnaam pithoragarhi on September 4, 2015 at 8:06pm

धन्यवाद दोस्तो ,,,,,,,,गिरिराज जी गुमनाम हूँ पर कोई भी नाम देकर काम नहीं चलेगा ,,,,,, गुमनाम कहें ,,,,,,,,,,, पर आप जो कहे स्वीकार है ,,,,,,,,,,

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 3, 2015 at 11:11pm

अच्छे अश’आर हुए हैं गुमनाम साहब, दाद कुबूल करें


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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 3, 2015 at 5:34pm

बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद हाज़िर है.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2015 at 4:50pm

आदरनीय लक्ष्मण भाई , बहुत सुन्दर गज़ल हुई है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

बीमार मे  बी की मात्रा गिराना कितना  सही होगा ?

लाव्वल   मेरे लिये शब्द नया है पर ला की मात्रा 1 कैसे ले सकते हैं ?    बताइयेगा ।

Comment by Shyam Narain Verma on September 2, 2015 at 10:37am
बहुत उम्दा ... बहुत बहुत बधाई
Comment by Ravi Shukla on September 2, 2015 at 10:24am
आदरणीय गुमनाम जी सुन्दर अशआर के लिए मुबारक बाद क़ुबूल करे । मुहांसो को देखने का नज़रिया ,क्या खूब कहा है । जवाब आँख ने दिया के मिसरे में टंकण की त्रुटि है क्या ? हमे ये लफ्ज़ समझ नही आया । स्पष्ट करे तो आसानी हो जायेगी । बहरहाल ग़ज़ल अच्छी लगी ।पुनः बधाई ।

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