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प्यार की आंच से ये फिर से पिघलते क्यूँ हैं (तरही ग़ज़ल 'राज ')

पुरख़तर इश्क की राहें हैं तो चलते क्यूँ हैं

चोट खाकर ही मुहब्बत में सँभलते क्यूँ हैं

 

प्यारा के दीप इन आँखों में यूँ जलते क्यूँ हैं

चाँदनी रात में अरमान मचलते क्यूँ हैं

 

रात में ख़्वाब इन आँखों पे हुकूमत करते

सुब्ह होते ही ये हालत बदलते क्यूँ हैं

 

बेवफाई से हुए  इश्क में जो दिल पत्थर

प्यार की आंच से ये फिर से पिघलते क्यूँ हैं

 

दूर से खूब लुभाते हैं ये तपते सहरा

तिश्नगी में ये मनाज़िर हमे छलते क्यूँ हैं

 

मसअले आम न चाहे ये बनाना आँखें

बेरहम  अश्क ये रुख्सार से ढलते क्यूँ हैं

 

दिल के बरखे पे लिखे दर्द भला कम हैं क्या

‘राज’ जज्बात कलम से ये निकलते क्यूँ हैं  

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 13, 2015 at 10:07am

आ० सुलभ अग्निहोत्री जी,आपका बहुत- बहुत आभार.  

Comment by Sulabh Agnihotri on August 12, 2015 at 6:17pm

बहुत प्यारी गजल हुयी है आदरणीया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 12, 2015 at 5:53pm

प्रिय प्रतिभा पाण्डेय जी ,आपका दिल से बहुत बहुत शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 12, 2015 at 5:51pm

मिथिलेश भैया,ग़ज़ल पर शेर दर शेर दाद पाकर अभिभूत हूँ आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभारी हूँ |

आपका कहना ठीक है दरअसल वरके  को  ही आंचलिक  भाषा में बरखे कहते थे आज भी कहते हैं वैसे सही शब्द वरके ही है ...वर्क-ए-दिल आपने बहुत अच्छा सुझाया है इससे शेर की ख़ूबसूरती दुगनी हो गई है ..इसे जल्द ही ठीक कर लूँगी |तहे दिल से आभारी हूँ|   

Comment by pratibha pande on August 12, 2015 at 5:45pm
इस खूबसूरत ग़ज़ल पे दाद कुबूल कीजिये आ० राजेश कुमारी जी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 12, 2015 at 5:10pm

आदरणीया राजेश दीदी, शानदार ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद हाज़िर है-

पुरख़तर इश्क की राहें हैं तो चलते क्यूँ हैं

चोट खाकर ही मुहब्बत में सँभलते क्यूँ हैं........ बेहतरीन मतला हुआ ... बहुत खूब 

 

प्यार के दीप इन आँखों में यूँ जलते क्यूँ हैं

चाँदनी रात में अरमान मचलते क्यूँ हैं..............वाह वाह बहुत सुन्दर ...प्यारा शेर 

 

रात में ख़्वाब इन आँखों पे हुकूमत करते

सुब्ह होते ही ये हालत बदलते क्यूँ हैं........... वाह वाह बहुत बढ़िया कहन 

 

बेवफाई से हुए  इश्क में जो दिल पत्थर

प्यार की आंच से ये फिर से पिघलते क्यूँ हैं........... सुन्दर 

 

दूर से खूब लुभाते हैं ये तपते सहरा

तिश्नगी में ये मनाज़िर हमे छलते क्यूँ हैं...... वाह वाह 

 

मसअले आम न चाहे ये बनाना आँखें.............. ये को जो किया जा सकता है 

बेरहम  अश्क ये रुख्सार से ढलते क्यूँ हैं

 

दिल के बरखे पे लिखे दर्द भला कम हैं क्या...... वर्क से वरक से वरके मतलब पृष्ट ठीक है पर वरके का अपभ्रंश है क्या बरखे ?

‘राज’ जज्बात कलम से ये निकलते क्यूँ हैं  

वर्क-ए-दिल पे जो लिखे दर्द भला कम हैं क्या

‘राज’ जज्बात कलम से ये निकलते क्यूँ हैं 

बढ़िया मक्ता हुआ है 

इस प्रस्तुति पर आपको हार्दिक बधाई 

Comment by narendrasinh chauhan on August 12, 2015 at 4:51pm

बेवफाई से हुए  इश्क में जो दिल पत्थर

प्यार की आंच से ये फिर से पिघलते क्यूँ हैं

लाजवाब ! खूब सुन्दर रचना

Comment by Ravi Shukla on August 12, 2015 at 1:01pm

बहुत बहुत आभार आपका आदरणीया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 12, 2015 at 12:41pm

बहुत- बहुत  शुक्रिया  रवि शुक्ला जी,  आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ | बरखे का अर्थ प्रष्ठ हो ता है तथा ग़ज़ल की बह्र --

2122 1122 1122  22  ये  है | आशा  है मैं आपके  संशय  का निवारण  कर पाई. 

Comment by Ravi Shukla on August 12, 2015 at 12:35pm

आदरणीया राजेश जी सुन्‍दर ग़ज़ल के लिये दाद कुबूल करें

बस मकते के शेर मे बरखे का अर्थ स्‍पष्‍ट कर दें तो हमें कुछ आसानी हो जाएगी

बह्र का निवेदन भी है ।

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