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एक ग़ज़ल -- सुलभ अग्निहोत्री

बहर - 2212 1212   22 1212

वो भ्रम तुम्हारे प्यार सा बेहद हसीन था
सपनों के आसमान की मानो जमीन था

सारी थकान खींच ली गोदी में लेटकर
बच्चा वो गीत रूह का ताजातरीन था

हर खत में अपनी खैरियत, उसको दुआ लिखी
माँ यह कभी न लिख सकी, कुछ भी सही न था

मन, प्राण, आँख द्वार पर, बेकल बिछे रहे
कुनबा तमाम जुड़ गया, आया वही न था

अँजुरी मेरी बँधी रही और सारा रिस गया
वो प्यार रेत से कहीं ज्यादा महीन था

सूरज बगैर हर दिशा को रौदता रहा
जो शख्स धुंध बन गया, बेहद जहीन था

मैं फलसफों के व्यूह में, बस फँस के रह गया
वो सिलसिला शुरू हुआ तो अन्तहीन था

मैंने किसी के घाव पे मरहम लगा दिया
तुम क्यों बिखर गए तुम्हें मुझ पर यकीन था

----- सुलभ अग्निहोत्री

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sulabh Agnihotri on August 9, 2015 at 11:01am

Samar kabeer जी ! एक मिसरा भी बहर से खारिज नहीं है। कृनया बहर देख लें। जहाँ तक सवाल काफिये का है - तो मेरा निश्चित मत है कि तुक या काफिया भी उच्चारणा और ध्वनि का विषय है, न कि शब्द और उसके अर्थ का। उसी तरह जैसे मात्रा-गणना (तक्तीय) उच्चारण का विषय है, मिसराा लिखा कैसे जाएगा यह नहीं देखा जाता। इस दृष्टिकोण से ‘सही न’ और ‘वही न’ में मुझे कोई दोष नहीं दिखाई देता।
गजल की क्लास मैं पढ़ चुका हूँ, जितनी आत्मसात करने लायक थी कर चुका हूँ।
एक विनम्र सलाह - देवनागरी में उठाऐं गलत है, इसे उठायें या ‘उठाएँ’ लिखा जाएगा। कृपया सुधार लें। -- सादर !

Comment by Sulabh Agnihotri on August 9, 2015 at 10:49am

मिथिलेश वामनकर जी मेरी बहर तो वही है जो मैंने लिखी है,हाँ पढ़ उसे आप उस बहर में भी सकते हैं जो आपने बताई है - बस चैथे शेर में पर की जगह पे करना पड़ेगा।
देखिये जान गोरखपुरी जी ने सही पकड़ी थी।

Comment by Samar kabeer on August 8, 2015 at 11:37pm
जनाब सुलभ अग्निहोत्री जी,आदाब,ग़ज़ल की कोशिश अच्छी है लेकिन कहीं कहीं मिसरे बह्र से ख़ारिज हैं और कुछ शैरों में क़ाफ़िये भी सही नहीं है ,"ज़हीन" और "हसीन" क़ाफ़िये के साथ "वही न" क़ाफ़िया ,ये क्या है ? देख लीजियेगा,कृपया ओबीओ पर ग़ज़ल की कक्षा का लाभ उठाऐं ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 8, 2015 at 12:54pm
आपकी ग़ज़ल इस बह्र में है भाई जी
221 2121 1221 212
Comment by Sulabh Agnihotri on August 8, 2015 at 12:30pm

बहुत-बहुत आभार Harash Mahajan जी ! 

Comment by Sulabh Agnihotri on August 8, 2015 at 12:29pm

बहुत-बहुत आभार जान गोरखपुरी जी ! जी, आपका अन्दाजा सही है बहर के संबंध में।

Comment by Sulabh Agnihotri on August 8, 2015 at 12:28pm

आपके निर्देश का पालन कर दिया है मिथिलेश वामनकर जी !

Comment by Harash Mahajan on August 6, 2015 at 8:07pm


आ० सुलभी जी अति सुंदर पेशकश सभी शेर उत्तम ...दाद हाज़िर ..!!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on August 6, 2015 at 7:40pm

लाजव़ाब! लाजव़ाब! क्या कहने जिंदाबाद गज़ल हुयी है दाद ही दाद पेश है ! आ० सुलभ जी आ० मिथलेश सर की बात पर अवश्य गौर फरमाएं! मंच पर मेरे जैसे गज़ल सीखने वाले बहुत से नवाभ्यासी है..बह्र लिखने से हमारे लिए आसानी हो जाती है! जहाँ तक मै समझ पा रहा हूँ  गज़ल की बह्र  २२१२ १२१२ २२१२ १२ है!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 6, 2015 at 4:21pm

आपसे विशेष निवेदन है कृपया बह्र / वज्न लिखने की कृपा करें..... ये मंच की परंपरा रही है जो अब अनुशासन की श्रेणी में माना जाता है. सादर निवेदन पुनः पुनः 

कृपया ध्यान दे...

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