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उसने कामवाली को जरा-सा जोर से क्या डांट दिया, पति और बेटे दोनों ने ये कहकर अयोग्य घोषित कर दिया कि उसकी नाहक ही परेशान होने उम्र नहीं है। परिवार के दबाव में स्टोर की चाबी बहू को सौपते हुए उसे लगा था जैसे उसके किचन नाम के किले पर किसी ने सेंधमारी कर ली हो।  वह सोच में डूबी थी कि अचानक बहू के चिल्लाने की आवाज सुनकर बोली-

 “अरे बहू सुबह सुबह क्यों डांट रही है बच्चे को, अब एक दिन स्कूल नहीं जाएगा तो कोई पहाड़ नहीं टूट जाएगा।” दादी की शह पाकर बच्चा दादी के साथ ही लग लिया। पूरा दिन दादी के साथ ही रहा। बहू रात के भोजन के बाद बरतन समेटकर बच्चे को लेने पहुंची। “बहू अब सोते में मत ले जाओ..आज ये मेरे पास ही सोने की जिद कर रहा था इसलिए यही सुला लिया।”

बहू मन मसोसकर बच्चे की चिंता के साथ-साथ इस चिंता में चली जा रही थी कि खुद उसे नींद आएगी कि नहीं। आखिर छः सालों में पहली बार बच्चे के बगैर सोना था। बहू को चुपचाप जाते हुए देखकर, उसके चेहरे पर एक स्मित रेखा खींच आई। जैसे उसने भी दुश्मन के किले पर फतह हासिल कर ली हो।

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 5, 2015 at 9:54pm

आदरणीय रवि जी, लघुकथा पर आपकी उपस्थिति से मेरा मान बढ़ गया. 

लघुकथा का कथानक एक सुबह से रात तक एक पूरे दिन का है जिसमे वह सुबह उठती है और कल उसके विशेषाधिकार छीन जाने की  घटना पर  सोचती है तभी बहू द्वारा बच्चे को डाटने की आवाज पर बच्चे का पक्ष लेती है. और पूरा दिन गुजरता है और रात की घटना. इस लिहाज से कालखंड पूरे एक दिन का है जो शायद लघुकथा के लिहाज़ से बड़ा है. घटनाएं अलग अलग काल खंड में घट रही है. अब इस दिशा में विचार कर लघुकथा पर पुनः विचार करता हूँ. मार्गदर्शन के लिए आभार ... बहुत बहुत धन्यवाद 

Comment by Ravi Prabhakar on August 5, 2015 at 9:42pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर भाई जी, एक साथ इतनी सारी घटनाओं की वजह से लघुकथा का तानाबाना उलझ कर रह गया। /आज की सुबह उसे बहुत भारी लग रही थी।/ /वो रात बहुत भारी थी उसके लिए।/ लघुकथा का दो दिनों में विस्‍तार होना कालखंड का अतिक्रमण कर रहा है। सादर


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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 5, 2015 at 9:39pm

आदरणीय ओमप्रकाश जी, लघुकथा के मुखर अनुमोदन और सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 5, 2015 at 9:38pm

आदरणीय विनय जी, लघुकथा के मुखर अनुमोदन और सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 5, 2015 at 9:38pm

आदरणीय कृष्ण भाई जी, लघुकथा के मुखर अनुमोदन और सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार 

Comment by Omprakash Kshatriya on August 5, 2015 at 9:35pm

आ  मिथिलेश जी आप की लघुकथा वास्तव में जोरदार है. जैसे बच्चा भी अपनी जित मना रहा हो. बधाई आप को .

Comment by विनय कुमार on August 5, 2015 at 9:27pm

बहुत बारीक पहलू निकाला आपने मानव स्वभाव का , सुन्दर लघुकथा | बधाई आदरणीय मिथिलेश जी.


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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 5, 2015 at 9:24pm

आदरणीया अर्चना जी, लघुकथा के मर्म पर सार्थक प्रतिक्रिया और अनुमोदन के लिए आपका हार्दिक आभार 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 5, 2015 at 9:23pm

आदरणीया डॉ नीरज शर्मा जी, लघुकथा के मर्म पर अनुमोदन के लिए आपका हार्दिक आभार 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 5, 2015 at 9:22pm

आदरणीया सविता जी, लघुकथा के अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार 

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