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गंगा तो पवित्र है
इन्सानों के दुष्कर्म
अनवरत बहाना इसका चरित्र है
मैली पड़ जाती है
फिर भी बहती जाती है
आखिर माँ है
चुप चाप सहती जाती है
मगर दूषित करने वाले
माँ पुकार कर भी
ज़हर पिलाते जाते हैं
दुखों का अम्बार जुटाते जाते हैं
कहाँ किसी को ये प्यार दे पाते हैं
स्वार्थ ही तो कर्म है इनका
बस यही धर्म निभाते जाते हैं
इक दिन ये राख़ बन जाएंगे
माँ से मिलने फिर वापस आएंगे
किस मुहं से मुक्ति मांग पाएंगे
मगर गंगा तो आखिर गंगा माँ है
मना भी तो ना कर पायेगी
माँ क्या होती है
जो जीते जी ना समझ सके
अब राख़ बन क्या ख़ाक समझ पाएंगे !!

*****************************************

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on August 4, 2015 at 4:49pm

आदरणीय Sushil Sarna जी हार्दिक आभार आपका ...सादर 

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on August 4, 2015 at 4:48pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी आपकी उपस्थिति एवं प्रोत्साहन के लिये बहुत बहुत धन्यवाद....सादर  

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on August 4, 2015 at 4:45pm

आदरणीया pratibha pande जी उत्साहवर्धन हेतु बहुत बहुत आभार....सादर 

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on August 4, 2015 at 4:43pm

आदरणीय Harash Mahajan जी आपकी उपस्थिति और सराहना युक्त टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार 

Comment by Neeraj Neer on August 4, 2015 at 4:20pm

बहुत सुन्दर एवं सार्थक अभिव्यक्ति आदरणीय ...

Comment by Sulabh Agnihotri on August 4, 2015 at 4:13pm

बहुत सुन्दर है


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 4, 2015 at 2:16pm

आदरणीय मोहन भाई , बहुत सही और सटीक बात कही आपने । कविता के लिये आपको बधाइयाँ ।

Comment by Sushil Sarna on August 4, 2015 at 2:14pm

बहुत ही मार्मिक अभियक्ति प्रस्तुत की है आदरणीय सेठी जी। हार्दिक बधाई स्वीकारें। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 4, 2015 at 2:11pm

आदरणीय मोहन सेठी जी, बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति हुई है. हार्दिक बधाई आपको 

Comment by pratibha pande on August 4, 2015 at 1:59pm
सबके दुःख अपने में समेट कर बिना शिकायत चलती रहती है माँ ,बहुत भावपूर्ण रचना है ,बधाई आपको आ०मोहन सेठी जी

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