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बजता हूँ बन के साज तेरे मंदिरों में अब (इस्लाही गजल )

2212 2212 2212 22

बजता हूँ बन के साज तेरे मंदिरों में अब,
देता तुझे आवाज  तेरे मंदिरों में अब |

मांगी थी मैंने उम्र की संजीदगी लेकिन, 
क्यों इस तरह  मुहताज तेरे मंदिरों में अब |

मन जिसका देखूं दुश्मनी की नीव पे काबिज़, 
कैसे करूँ परवाज़ तेरे मंदिरों में अब | 

बस रौशनी की खोज में भटका तमाम उम्र
पगला गया, नेवाज तेरे मंदिरों में अब |

ले चल मुझे शमशान, कोई गम जहाँ ना हो, 
मेरा गया हमराज, तेरे मंदिरों में अब |


हर्ष महाजन  

"मौलिक व् अप्रकाशित"


नवाज = ईश्वर/भगवान् 
मंदिर = इंसानी देह  

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Comment

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Comment by saalim sheikh on July 29, 2015 at 7:47pm

बढ़िया प्रयास आदरणीय  , बधाई , शिल्प के बारे में काफ़ी बातें सामने आ ही चुकीं आपके साथ साथ मुझे भी सीखने का मौका मिला , मैं कथ्य के बारे में बस इतना कहना चाहूँगा कि कई मिसरे  थोड़े अस्पष्ट लगे मुझे 

' कैसे करूँ परवाज़ तेरे मंदिरों में अब '

'मेरा गया हमराज, तेरे मंदिरों में अब'

Comment by Harash Mahajan on July 28, 2015 at 5:31pm

आदरणीय Rahul Dangi जी बहुत बहुत धन्यवाद....सर आप सभी गुनीजनों का मार्गदर्शन की ज़रुरत है इसी से सब सुलभ होता दिखाई देता है ....अहसासों को डालने की कोशिश भर है | एक लम्बा सफ़र तय करना है | साभार |

Comment by Rahul Dangi Panchal on July 28, 2015 at 5:24pm
आदरणीय हर्ष जी अच्छा प्रयास है । गुनीजनों की बात पर गौर करें। सादर।
Comment by Harash Mahajan on July 28, 2015 at 4:40pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी आपने निहायत ही खूबसूरत तरीके से इस रचना को आकर्षित बनाया है | सर आप की सहायता से रफ्ता रफ्ता इस काफिये पर तरह  पूरी जीत पाने की कोशिश रहेगी | इसको फिर से कहने की कोशिश जारी रहेगी |आपके इन नए काफियों की इस्लाह के लिए मैं तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ....आईंदा भी आपको तकलीफ देता रहूँगा सर | साभार |


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Comment by मिथिलेश वामनकर on July 28, 2015 at 12:28pm

आदरणीय हर्ष जी इस प्रयास पर बधाई. आदरणीय समर कबीर जी की बात से सहमत हूँ मतले में बह्र भटक गई और अशआर में काफिया ही बदल गया. ग़ज़ल की कक्षा का लाभ लेकर पुनः प्रयास अपेक्षित है. सादर 

बजता हूँ बन के साज तेरे मंदिरों में अब,
देता तुझे आवाज  तेरे मंदिरों में अब |

मांगी थी मैंने उम्र की संजीदगी लेकिन, 
क्यों इस तरह  मुहताज तेरे मंदिरों में अब |

मन जिसका देखूं दुश्मनी की नीव पे काबिज़, 
कैसे करूँ परवाज़ तेरे मंदिरों में अब | 

बस रौशनी की खोज में भटका तमाम उम्र
पगला गया नेवाज, तेरे मंदिरों में अब |........ एक ही मिसरे में आज और अब नहीं आ सकता 

ले चल मुझे शमशान, कोई गम जहाँ ना हो, 
मेरा गया हमराज, तेरे मंदिरों में अब | .............एक ही मिसरे में  अब दो बार नहीं आ सकता 

यह भी अवश्य है कि उर्दू के मुताबिक ज़ाल(ز)ज़्वाद(ض) ज़ो (ظ)जीम( ج) हमकाफिया नहीं हैं लेकिन ये इस्लाह देवनागरी में लिखी गई ग़ज़ल पर दे रहा हूँ इसलिए इसके फेर में नहीं पड़ता. न मुझे उर्दू लिपि का ज्ञान है. इसलिए इसे देवनागरी में प्रस्तुत  ग़ज़ल पर देवनागरी में किया गया निवेदन मान जावे.

सादर 

Comment by Harash Mahajan on July 28, 2015 at 11:58am

आदरणीय Samar kabeer जी धन्यवाद आपने इस कृति में जो  काफिया का दोष बताया है तीसरे चौथे और आखिरी शेर में प्रतीत हुआ...काफिये की क्लास पढ़ रहा हूँ सही कहा... कोशिश जारी रहेगी सर | शुक्रिया |

Comment by Samar kabeer on July 28, 2015 at 11:33am
जनाब हर्ष महाजन जी,आदाब,ग़ज़ल का प्रयास तो अच्छा है,रदीफ़ भी ठीक है लेकिन क़ाफ़िये भटक रहे हैं,लय भी टूट रही है,ओबीओ पर ग़ज़ल की कक्षा की सुविधा उपलब्ध है,उसका लाभ उठाऐं ।

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