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इस बार वह अकेली मायके आई थी. वो जब भी आती, बाबा से लिपट जाती. बाबा खूब दुलारते. बाबा की परी थी वो.

लेकिन इस बार बाबा बस ससुराल वालों की खैर-खबर पूछकर बाहर चले गए. माँ ने भी उसकी पसंद का भोजन पकाया था. तृप्त तो हो गई वो, मगर उसे घर के माहौल में आये बदलाव को भांपते देर न लगी. आज पूरे पंद्रह दिन हो गए थे उसे यहाँ आये हुए. बाबा बेटे की बेरोजगारी और आवारागर्दी से अब अधिक ही परेशान दिखने लगे थे. उसकी उलटी सीधी मांगों को इसी भय से मान लेते कि कहीं कुछ कर न ले. उसे भी भइया को देख कर बहुत दुःख होता था. मगर कभी कुछ कहती भी तो बाबा झिड़क देते – “आखिर औलाद है मेरी.”

इतना कहने के बाद ऐसी नज़रों से उसकी तरफ देखते कि बस वह सहम के चुप रह जाती. 

लेकिन उसने अब ठान लिया था कि बाबा को वो ‘बाबा की परी’ बन कर समझाएगी. सुबह बाबा बाहर जाने के लिए तैयार बैठे थे.
“बाबा, ऐसे कब तक चलेगा. घर का माहौल .........अगर यही हाल.............. इससे तो अच्छा मैं यहाँ से चली जाऊं.....”
“कब की टिकट करानी है?” 
बाबा के इस सवाल ने ‘बाबा की परी’ को आसमान से उठा कर सीधा जमीन पर पटक दिया था.

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by मिथिलेश वामनकर on July 16, 2015 at 12:53pm

//"बेटे आखिर बेटे ही रहेंगे " और बेटियाँ पराया  धन . बदलाव आयें हैं पर अभी भी ये मानसिकता बरक़रार है . बहुत कुशलता से रचा आपने ये भेद .//- लघुकथा के मर्म को उभारती और विस्तार देती  इस सटीक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार आदरणीया रीता जी 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on July 16, 2015 at 12:50pm

आदरणीय विजय निकोर सर, आप जैसे गहन वैचारिक रचनाधर्मी से सकारात्मक प्रतिक्रिया पाना मेरे लिए बड़ी उपलब्धि है. सराहना हेत हार्दिक आभार, नमन 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on July 16, 2015 at 12:49pm

आदरणीया सविता मिश्रा जी, संक्षिप्त किन्तु सटीक प्रतिक्रिया द्वारा उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on July 16, 2015 at 12:47pm

आदरणीया राजेश दीदी, लघुकथा के मर्म तक पहुँच कर एक सार्थक प्रतिक्रिया देकर आपने मेरे प्रयास को आश्वस्त किया है. इस विधा का बिलकुल नया अभ्यासी हूँ इसलिए थोड़ा भय बना रहता है इस विधा के शिल्प को लेकर. आपकी आत्मीय सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से मेरा मनोबल बढ़ा है. हार्दिक आभार नमन 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on July 16, 2015 at 12:43pm

आदरणीय विनय जी, लघुकथा के प्रयास पर आपकी सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.

Comment by TEJ VEER SINGH on July 16, 2015 at 11:30am

आदरणीय मिथिलेश जी, आपकी कथा ने तन और मन दौनों को ही झकझोर दिया! आज के परिवेश में अधिकांश मध्यम वर्गीय  परिवारों की यही स्थिति है!बहुत ही सजीव चित्रण किया है!हार्दिक बधाई!

Comment by Archana Tripathi on July 16, 2015 at 1:47am
आज भी बेटी ऐसी ही परी हैं जिसके पंख कतर दिए जाते हैं।और छोटी छोटी बातों में अहसास कराया जाता हैं की वह पराई हैं
बहुत हो उम्दा लघुकथा लिखी हैं आ.मिथिलेश वामनकर जी आपने हार्दिक बधाई।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 15, 2015 at 10:59pm

अच्छी लघुकथा के लिए दाद कुबूल कीजिए आदरणीय मिथिलेश जी

Comment by pratibha pande on July 15, 2015 at 10:03pm

बहुत  अच्छी कथा  आ०  मिथिलेश  जी  ,  हार्दिक  बधाई  स्वीकार करें I   पहले परियों  को पंख   दे  दिए  जाते  हैं  उड़ने के लिए और  फिर  कभी  भी  बेदर्दी  से  पंखों  को  काट  दिया  जाता है I

Comment by jyotsna Kapil on July 15, 2015 at 10:02pm
आज भी हमारे समाज में बेटी को पराया ही माना जाता है।बहुत ही सुंदर और मार्मिक कथा है आ.मिथिलेश वामनकर जी,जो दिल को कहीं गहरे छू गई।बधाई स्वीकार करें।

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