घर से बाहर जिसे मैं ,
दर दर ढूँढता फिरा
वो बच्चा,
मेरे ही घर में छिपकर
मेरी बौखलाहट पे ,
हँसता रहा I
मै रहा देहरियाँ चूमता ,
मज्जिद बुतखाने की
मेरे दर पे बैठा वो ,
राह तकता रहा
मेरे घर लौट आने की I
ढली शाम , खाली हाथ
अब मैं हूँ लौट आया ,
किया ढूँढने में जिसे
सारा दिन जाया
हाय , घर के अन्दर उसे
मुस्कुराते पाया I
पर अब थक गया हूँ
उसके साथ,
, कहाँ खेल पाऊँगा
बस उसे देखते देखते
यूं ही सो जाऊँगा I
मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
आ० सुशील सामा जी , रचना पर सार्थक टिपण्णी के लिए आपका हार्दिक आभार
रचना की सराहना के लिए आपका आभार आ० प्रदीप जी
पर अब थक गया हूँ
उसके साथ,
, कहाँ खेल पाऊँगा
बस उसे देखते देखते
यूं ही सो जाऊँगा I
सुंदर प्रवाहमयी मार्मिकता युक्त रचना का अंतिम पड़ाव कटु सत्य को चरितार्थ कर रहा है … हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीया जी।
बहुत खूब आदरणीय , सादर बधाई
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