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गज़ल....खार रचता आदमी....

बह्र... 2122   2122   212

खुद को खुद से कब समझता आदमी.

जीत  कर  जब  हार  कहता  आदमी

मौन  में  संजीवनी  तो  है  मगर

मैं हुआ कब चुप अकडता आदमी.

आस्मां के पार भी खुशियां  दुखी,

हर कदम पर शूल सहता आदमी.

फूल-कलियां मुस्कराती हर समय,

देवता  को    भेंट   करता   आदमी.

आदमी  ही  आदमी  को  पूजता,

आचरण पशुता अखरता आदमी.

प्यार  में   सम्वेदना   करुणा   बहुत,

कीट, खग, पशु हित विलखता आदमी.

धर्म "सत्यम" के शिवा कुछ भी नहीं,

मैं, अहम  वश  खार रचता  आदमी.

के0पी0 सत्यम / मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 25, 2015 at 8:48pm

आ0   नरेंद्र सिन्हा भाईजी,   आपका तहेदिल से शुक्रिया...सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 25, 2015 at 8:45pm

आ0 कांता जी,  आपने गज़ल की सच्चाई को समझा उसके लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया..आभार .सादर

Comment by narendrasinh chauhan on June 25, 2015 at 2:48pm

इस खूब सुन्दर गजल के लिए बधाई

Comment by kanta roy on June 25, 2015 at 12:26pm
मैं, अहम  वश  खार रचता  आदमी....... बहुत ही सुंदर रचना में आदमी की आदमियत की सच्चाई को उकेरा है आपने । हर शेर लाजवाब है ,
हर शेर में छुपी हुई कई बहुत बडी बात है । बधाई केवल जी इस शानदार गजल के लिए

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