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मेरा मन माली सा हो गया

टूट टूट के अपना दिल कुछ जाली सा हो गया

अंतरमन का वो कोना कुछ खाली सा हो गया

 

वस्ल की निगाहें हो गयी, दोस्ती की आड़ में

नारी होकर जीना अब कुछ गाली सा हो गया

 

नजरों में घुली शराब, चाचा मामा भाई की

आँखों में हर रिश्ता, अब कुछ साली सा हो गया

 

गर्दिश में लिपटी कनीज़, सहारे की तलाश में

मन अकबर शज़र का भी, कुछ डाली सा हो गया

 

शोर में दब के रह गयी आबरू की आवाज

चीखती ललना का स्वर, बस ताली सा हो गया

 

हारकर जब उसने सर रखा था मेरे काँधे पर 

कैसे बताऊँ “निधि” मेरा मन माली सा हो गया 

निधि अग्रवाल 

मौलिक और अप्रकाशित 

Views: 672

Comment

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Comment by Rita Gupta on June 9, 2015 at 9:24pm

वाह ,सुंदर रचना 

Comment by narendrasinh chauhan on June 9, 2015 at 6:49pm

खूब सुन्दर रचना

Comment by मनोज अहसास on June 9, 2015 at 6:44pm
बहुत भावपूर्ण
सुन्दर प्रयास

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