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"पहले तो हमें नौकरी ही नहीं मिलती। अगर मिल भी जाए तो सालों साल रगड़ते रहो, कोई प्रमोशन नहीं। और एक ये हैं ?"

"और लो जन्म ऊँची जात में।"

पिघले हुए सीसे की तरह ये शब्द उसके कानों में उतर रहे थे । 

मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by saras darbari on June 3, 2015 at 9:52am

सटीक ...गागर  में  सागर ..!!!

Comment by विनय कुमार on June 2, 2015 at 11:45pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय महर्षि त्रिपाठी जी..

Comment by विनय कुमार on June 2, 2015 at 11:44pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी , सच में ये सब बातें बस में नहीं हैं..

Comment by maharshi tripathi on June 2, 2015 at 10:35pm

कम सब्दों में अच्छी सीख आ.vinaya kumar singh जी |

+

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 2, 2015 at 9:46pm

आ० या तो टर्न की बात है . अंग्रेजों के राज में ऊंची जाती वाले मलाई  खाते ते अब और लोग खा रहे है .एक्सीडेंट ऑफ़  बर्थ  किसी के बस में नहीं ------------भाग्यम फलतु  सर्वत्र न च विद्या न च पौरुषम ---- जय हो ----कथा में अंतिम वाक्य आवश्यक नहीं  था . सादर

Comment by विनय कुमार on June 2, 2015 at 9:29pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी | जी हाँ , बहुत से अन्य विषय / परिपाटी इत्यादि हैं जिनपर लिखा जा सकता है , सहमत हूँ आपसे , सादर .


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 2, 2015 at 2:03pm

भाई जन्म लेना हाथ में तोनहीं है. सामाजिक व्यवहार, आचरण, परिपाटियों, परम्पराओं को कुछ बेहतर लानत भेजी जा सकती है.  वैसे ऐसे केस कई बार एकांगी ही सोचे लगते हैं. अतः चर्चा-परिचर्चा की गुंजाइश बनी रहती है.

प्रस्तुति केलिए हार्दिक शुभकामनाएँ.

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