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हिंदी-साहित्य

साहित्य,

दर्पण सा मजबूर
इसका अपना कोई अक्स नहीं होता
रूप-रंग, वेष-भूषा, आकार-प्रकार
सब शून्यवत
अदृश्य आत्मा सा भाषा हीन
भावनाओं की आकृतियां अनुभव से सराबोर
आंसुओं में दर्द के बीज
संगठित मोतियों का वजूद
दफ्न हो जाते होंठो के कोर पर
संवेदनहीनता के मरूस्थल गढ़ते नई भाषा
साहित्य की आत्मा
पत्रकारिता की देह में ऐंठती मूॅछ
उगलती भाषाओं की जातियां, भ्रम....क्लीष्टतम रस
क्षेत्रीयता के कलश हवाओं में लटके
मुंह बन्द, गले में रस्सी....कहतीं
गोविन्दा आला रे...
पत्रकारिता,
भाषाओं के बन्धनों से मुक्त
आधुनिक परिधानों से सुसज्जित
आचार-विचारों व आर्द-भावों से सिक्त
अन्यान्य श्रृंगारों में उकेरती
मुख्य आवरण का चोखापन
अशिष्टता,
दर्पण को स्वयं परोसती.... शिष्टाचार
जन-मन आनन्द के भावातिरेक में जेंवते
कषाय व्यंजन......निपोरते बतीसी
जिभ्या कट जाती 
ईर्ष्र्या, द्वेष और अनाचार से
मूक दर्पण.....संकेतों में उघारते.......काली छाया
आत्मा की पुनरावृत्ति सींचती
साहित्य की अमिट आवृत्तियां
अक्षर-अक्षर प्रस्फुटित होकर प्रस्तुत करते
नववधू रूप!
दुर्भावनावश....
आज भी सशकित है.......!
साहित्य का भविष्य?

के0पी0सत्यम/मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on May 30, 2015 at 10:52am
जनाब केवल प्रसाद जी,आदाब,सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 29, 2015 at 11:35pm

साहित्य का भविष्य उज्ज्वल है 

कम से कम अब तो ऐसा लगने लगा है.

Comment by shikha kaushik on May 29, 2015 at 9:50pm

साहिय के भविष्य को लेकर  आपकी आशंका निर्मूल नहीं है . सार्थक व् सामयिक प्रस्तुति हेतु बधाई .

कृपया ध्यान दे...

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