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ग़ज़ल -नूर -सपने क्या क्या बुन लेते थे छोटी छोटी बातों में

मात्रिक बहर 22/22/22/22/22/22/22/2 

क्या क्या सपनें बुन लेते थे छोटी छोटी बातों में
क़िस्मत ने कुछ और लिखा था लेकिन अपने हाथों में.
.
कैसे कैसे खेल थे जिन में बचपन उलझा रहता था
मोटे मोटे आँसू थे उन सच्ची झूठी मातों में.
.
कितने प्यारे दिन थे जब हम खोए खोए रहते थे 
लड़ते भिड़ते प्यार जताते खट्टी मीठी बातों में.

एक ये मौसम, ख़ुश्क हवा ने दिल में डेरा डाला है
एक वो ऋत थी, साथ तुम्हारे भीगे थे बरसातों में.
.
एक समय तो ख़्वाबों में भी साथ तुम्हारा होता था
लेकिन आवारा से फ़िरते हैं अब तन्हा रातों में.
.
थोड़े इसके थोड़े उसके लेकिन ख़ुद के कुछ भी नहीं
धीरे धीरे रोज़ ख़ज़ाना लुटता है खैरातों में.

इन साँसों में समा गयी है गीली मेहंदी की ख़ुशबू
वक़्ते रुख्सत हाथ था उनका “नूर” हमारे हाथों में
.
निलेश "नूर"

मौलिक / अप्रकाशित 

Views: 730

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 30, 2015 at 8:59am

शुक्रिया आ. मिथिलेश जी ..
आपसे सराहना पा कर गद्गद हुआ जाता हूँ...
आपकी ग़ज़ल की प्रतीक्षा है 
आभार 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 30, 2015 at 8:57am

शुक्रिया आ. सौरभ सर .
झूम तो मैं रहा हूँ आपसे दाद पा कर ...ये कमाल तो बहर का भी है 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 30, 2015 at 8:56am

शुक्रिया आ. जान गोरखपुरी साहब 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 30, 2015 at 8:56am

शुक्रिया आ. दिनेश जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 30, 2015 at 8:56am

शुक्रिया आ. समर कबीर साहब 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 29, 2015 at 11:25pm

आदरणीय नीलेश जी 

अब क्या रोज़ तारीफ़ लिखवाईयेगा 

कमाल कमाल कमाल 

भाई आपका दिमाग है या ग़ज़लों का कारखाना 

गज़ब की उत्पादनशील इकाई है 

आपके दिलो-दिमाग का कमाल देखकर चकराने लगा हूँ.

इन दिनों आदरणीय समर जी और आप चौके छक्के लगा रहे है, इधर बैट उठाने की हिम्मत नहीं हो रही है.

इन दो अशआर पर दिल से दाद और ढेर सारी दुआ -

कैसे कैसे खेल थे जिन में बचपन उलझा रहता था 
मोटे मोटे आँसू थे उन सच्ची झूठी मातों में.
.
कितने प्यारे दिन थे जब हम खोए खोए रहते थे  
लड़ते भिड़ते प्यार जताते खट्टी मीठी बातों में.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 29, 2015 at 10:46pm

आप कमाल हैं, साहब ..
आपकी संवेदनशील पंक्तियों को पढ़ कर झूम जाता हूँ, आदरणीय नीलेश भाई.

निम्नलिखित अश’आर का हो जाना दिल को कुछ और आत्मीय हुआ महसूस कर रहा है -  

कैसे कैसे खेल थे जिन में बचपन उलझा रहता था
मोटे मोटे आँसू थे उन सच्ची झूठी मातों में.

एक समय तो ख़्वाबों में भी साथ तुम्हारा होता था
लेकिन आवारा से फ़िरते हैं अब तन्हा रातों में.

इन साँसों में समा गयी है गीली मेहंदी की ख़ुशबू
वक़्ते रुख्सत हाथ था उनका “नूर” हमारे हाथों में

दाद दाद दाद

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 29, 2015 at 7:34pm


इन साँसों में समा गयी है गीली मेहंदी की ख़ुशबू
वक़्ते रुख्सत हाथ था उनका “नूर” हमारे हाथों में

वाह आ० बहुत ही पुरनूर गजल हुयी है!शेर दर शेर दाद कबूल फरमाएं! मक्ता  तीर-ए-नीमकश की तरह समा गया है दिल में!

Comment by दिनेश कुमार on May 29, 2015 at 7:07pm
वाह वाह, बहुत खूब आ. निलेश भाई !
कैसे कैसे खेल थे जिन में बचपन उलझा रहता था.... बहुत कुछ याद आ गया भाई ...
ढेरों दाद व मुबारकबाद भाई।
Comment by Samar kabeer on May 29, 2015 at 10:34am
जनाब निलेश "नूर" जी,आदाब,वाह वाह वाह, हर ग़ज़ल की तरह यह ग़ज़ल भी शानदार है ,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

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