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बैसाखी (लघुकथा)

"अरी भागवान  ! तुम इस तरह क्यूँ देख रही हो बेटे को ?"

" देख रही हूँ कहीं लडखडाया तो हम झट से सहारा दे देंगे ."

"क्या वाकई तुम्हे लगता है कि उसे तुम्हारे सहारे की जरूरत है ?"

 " शायद नहीं , बड़ा हो गया है  अब जीवन साथी भी  मिल गयी है ."

"हमने  अपना फ़र्ज़ पूरा किया ,अब उसे हमारे सहारे की जरूरत नहीं है .

 ,जीवन पथ पर चलना  सीखा दिया है हमने "

"पर अब हम असक्त हो गएँ हैं ,उसके प्यार की बैसाखी की जरूरत अब हमें है ."

@मौलिक व् अप्रकाशित 

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Comment by rajesh kumari on June 1, 2015 at 9:59pm

अच्छी लघु कथा है सच कहा आपने बाद में मातापिता को ही सहारे की जरूरत होती है |हार्दिक बधाई रीता जी. 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 1, 2015 at 12:14pm

प्रयास आशान्वित करता है . सादर.

Comment by Rita Gupta on June 1, 2015 at 11:08am

आभार श्रीमान शरद जी . आपके कमेंट्स अगली रचना लिखने के लिए एनेर्जी देंगे . धन्यवाद 

Comment by SHARAD SINGH "VINOD" on May 31, 2015 at 8:07pm

"पर अब हम असक्त हो गएँ हैं ,उसके प्यार की बैसाखी की जरूरत अब हमें है ." स्थिति ये है..

" देख रही हूँ कहीं लडखडाया तो हम झट से सहारा दे देंगे ." पर वत्सल्य बल्वती है... 

इस भाव भीनी रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई.. रीता जी.. सादर.

Comment by Rita Gupta on May 30, 2015 at 10:35pm

आदरणीय श्याम नरेन वर्मा जी आभारी हूँ आपकी बधाई पा कर .

Comment by Shyam Narain Verma on May 30, 2015 at 4:01pm
सुन्दर लघुकथा के लिये आपको बधाई ॥

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