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ग़ज़ल :- ज़िन्दगी जोड़ने घटाने में

फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन/फ़ेलान

ज़िन्दगी जोड़ने घटाने में
आगए मौत के दहाने में

सब ही सुनते हैं शौक़ से उसको
ज़िक्र तेरा हो जिस फ़साने में

गालियाँ खाके भी निगलते रहे
हीरे मोती थे उसके खाने में

उसकी आँखो का वो फ़ुसूं,तौबा
आगए हम भी वरग़लाने में

ये उसी नस्ल के तो हैं,जिनका
नाम है हड्डियाँ चबाने में

जैसे हो वैसे क्यूँ नहीं दिखते
मसलहत क्या है मुस्कुराने में

आप ईमान लाए हो भाई
फिर भी तकरार सर झुकाने में

दिल को कितना सुकून मिलता है
उसकी आयात गुनगुनाने में

लोग क्या क्या ख़रीद लेते थे
इक ज़माना था,एक आने में

वो अलादीन का नहीं था,प हाँ
इक दिया था ग़रीब ख़ाने में

कितने माहिर हैं ये सियासत दाँ
ना रवा को रवा बनाने में

मिल गए अब तो चश्मदीद गवाह
देर क्यूँ फ़ैसला सुनाने में

कितने कंजूस हैं ये आलिम भी
इल्म की रोशनी दिखाने में

बा अदब,बा मुलाहिज़ा,हुश्यार
ये सदा दो,"समर" है आने में

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on May 4, 2015 at 3:29pm
जनाब विजय निकोरे जी,आदाब, हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ |
Comment by Samar kabeer on May 4, 2015 at 3:28pm
जनाब जितेन्द्र पस्टारिया जी,आदाब,सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ |
Comment by Samar kabeer on May 4, 2015 at 3:27pm
आली जनाब डा.विजय शंकर जी,आदाब,आपकी शिर्कत ने मेरी ग़ज़ल का मान बढ़ाया,हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ |
Comment by vijay nikore on May 4, 2015 at 3:07pm

खूबसूरत गज़ल के लिए बधाई। 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 4, 2015 at 12:11pm

बहुत खूबसूरत गजल, आदरणीय समर साहब. हर शेर तारीफ़ के काबिल हुआ है. दिली बधाई आपको

Comment by Dr. Vijai Shanker on May 3, 2015 at 4:40pm
लोग क्या क्या ख़रीद लेते थे
इक ज़माना था,एक आने में ॥
क्या वक़्त देखा है, क्या वक़्त देख रहे हैं , एक वो भी ज़माना था , इक ये भी ज़माना है॥
बहुत खूब , बहुत खूब , पूरी ग़ज़ल क्या खूब बनी है , आदरणीय समर कबीर साहब , नमस्कार, बहुत बहुत बधाईयाँ , सादर।
Comment by Samar kabeer on May 3, 2015 at 2:55pm
आली जनाब सौरभ पाँडे जी,आदाब,आपकी बारीक बीनी का तो मैं पहले ही से क़ाइल हूँ,आपकी शिर्कत से ग़ज़ल का मान बढ़ गया,अब मैं मुतमइन हूँ,ज़र्रा नवाज़ी के लिये तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ |
Comment by Samar kabeer on May 3, 2015 at 2:50pm
जनाब मोहन सेठी 'इन्तिज़ार' जी,आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और हौसला अफ़ज़ाई के लिये दिल से शुक्रगुज़ार हूँ, सब को हुशयार करने के लिये मज़ीद शुक्रिया |

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 3, 2015 at 2:13pm

आदरणीय समर साहब..

शेर दर शेर दाद कुबूल करें.

’एक आने’ वाले शेर पर मैं सहज नहीं हो रहा था. लगा था, अनावश्यक एक शेर बढ़ा दिया आपने. ग़लत. एक समय से उसीको सोच रहा हूँ.. ओढ़ रहा हूँ, बिछा रहा हूँ ! बाँध लिया है इसने ! ये होती है किसी मुकम्मल शेर की ताक़त !

बधाइयाँ..

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 3, 2015 at 11:43am

बहुत ख़ूब ..बधाई ...जी वैसे हुश्यार कर दिया है सब को....

बा अदब,बा मुलाहिज़ा,हुश्यार
ये सदा दो,"समर" है आने में 

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