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ग़ज़ल - सूरज से आँख उसने मिलाई हुई तो है -- गिरिराज भंडारी

221    212 1   1221     212 

 

बदली ने टांग अपनी अड़ाई हुई तो है

सूरज से आँख उसने मिलाई हुई तो है

 

कहने लगे हैं नक़्श हरिक शक्ल के यही

चक्की में ज़िन्दगी  की पिसाई हुई तो है

 

बातों में तेवरी है बग़ावत की, मान ली

लेकिन जो सच थी बात, उठाई  हुई तो है

 

देखें कि घर में रोशनी आती है कब तलक

तारीकियों के संग लड़ाई हुई तो है  

 

सद शुक्र, ऐ तबीब दवा और मत लगा

उनकी हथेलियों से सिकाई हुई तो है

 

माना कि, फौज आज खड़ी सरहदों पे , पर

दुश्मन के साथ थोड़ी ढिलाई हुई तो है

 

हिलता नहीं जो संगे ग़रीबी तो क्या ग़लत

सरकार खुद पसीना  नहाई हुई तो है

****************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 9, 2015 at 5:55pm

आदरणीय महर्षि भाई , हौसला अफज़ाई का बहुत शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 9, 2015 at 5:54pm

बहुत बहुत शुक्रिया , आदरणीय समर कबीर भाई , आपकी उपस्थिति से गज़ल और निखर गई । आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥

नूकूश वाले शे र को मैने  इसी पेज मे नीचे सुधार कर लिखा था , शायद आपकी नज़र नहीं पड़ी , आपका सुधारा हुआ  भी बहुर सुन्दर है । दोनो मे से किसे चुनूँ , आप बताइयेगा , बिना झिझक !! अपना सुधारा हुआ फिर से यहीं लिख रहा हूँ --

नक्शा बता रहा है हरिक शक़्ल का यही     या  - "कहने लगे हैं नक़्श हरिक शक्ल के यही"

चक्की में ज़िन्दगी  की पिसाई हुई तो है

                                                          आपका  फिर से शुक्रिया ॥

Comment by maharshi tripathi on April 9, 2015 at 5:19pm

इस खुबसूरत गजल पर आपको ,,,ढेरो बधाई आ,गिरिराज भंडारी सर ,,,,सभी शेर काबिले तारीफ हैं |

Comment by Samar kabeer on April 9, 2015 at 4:40pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी,आदाब,तरही मिसरे पर अच्छी ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
दो मिसरों की तरफ़ आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा |
(1)"सूरज से आँखें उसने मिलाई हुई तो है"
इस मिसरे में आँखें की जगह आँख कर लीजिये, "आँखें" शब्द से रदीफ़ का आख़री शब्द "है" को "हैं" पढ़ना पड़ेगा ,"आँखें" बहुवचन है |

(2)"नूकूश कह रहे हैं हरिक शक़्ल के यही "

इस मिसरे में सक्ता महसूस हो रहा है,इसे इस तरह लिखेंगे तो सही हो जाएगा :-

"कहने लगे हैं नक़्श हरिक शक्ल के यही"

जो महसूस किया वो लिख दिया, आगे आपको पूरा इख़्तियार है,कृपया अन्यथा न लें |

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 9, 2015 at 3:04pm

आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया  ।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 9, 2015 at 12:35pm
अच्छे अश’आर हुए हैं आ. गिरिराज जी और ये शे’र तो गज़ब ढा रहा है। दाद कुबूल कीजिए

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 9, 2015 at 11:24am

आ. पाठकों से अनुरोध है कि , गज़ल के दूसरे शे र को निम्न अनुसार पढ़ने की कृपा करें --- 

नक्शा बता रहा है हरिक शक़्ल का यही 

चक्की में ज़िन्दगी  की पिसाई हुई तो है

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 9, 2015 at 11:23am

आदरणीय श्याम भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 9, 2015 at 11:22am

आदरणीय मिथिलेश भाई , गज़ल पर आपकी  विस्तृत प्रतिक्रिया देख बहुत अच्छा लगा ! आपको अशआर पसंद आये तो मेहनत सार्थक  हुई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 9, 2015 at 11:19am

आदरनीय कृष्णा भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥

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