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ग़ज़ल : रंगमंच ये सारा उसका, उसके ही तो है .... (मिथिलेश वामनकर)

22-22--22-22--22-22—2 

 

तुम बिन सूने-सूने लगते  जीवन-वीवन सब

साँसें-वाँसें, खुशबू-वुशबू, धड़कन-वड़कन सब

 

आज सियासत ने धोके से, अपने बाँटें है-

बस्ती-वस्ती, गलियाँ-वलियाँ, आँगन-वाँगन सब 

 

मन को सींचों, रूठे रहते बंजर धरती से-

बादल-वादल, बरखा-वरखा, सावन-वावन सब

 

कितनी जल्दी छिन जाते है पद से हटते ही  

कुर्सी-वुर्सी, टेबल-वेबल, आसन-वासन सब

 

तेरी चुप्पी में भी मुझसे बातें करते हैं-

पायल-वायल, बिंदिया-विंदियाँ, कंगन-वंगन सब

 

तुम आई जो मन मंदिर में, जी को भाए हैं-

पूजा-वूजा, श्रद्धा-व्रद्धा, दर्शन-वर्शन सब

 

रंग मुहब्बत का छाया तो हमने तोड़े है-

रिश्तें-विश्तें, कसमें-वसमें, बंधन-वंधन सब

 

यार मिला तो, छोटे लगते, कस्बे के आगे-

पेरिस-वेरिस, बर्लिन-वर्लिन, लन्दन-वन्दन सब

 

तेरी साँसों के बिन कितने सादे लगते हैं-

जूही-वूही, मोंगर-वोंगर, चन्दन-वन्दन सब

 

रंगमंच ये सारा उसका, उसके ही तो है-

नाटक-वाटक, परदे-वरदे, मंचन-वंचन सब 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by मिथिलेश वामनकर on April 2, 2015 at 5:24pm

आदरणीय गुमनाम सर जी हार्दिक आभार.

आपने भी खूब लिखा है. 

Comment by gumnaam pithoragarhi on April 2, 2015 at 4:41pm
वाह सर वाह बहुत खूब ग़ज़ल हुई है बधाई ,,,,,,,राहत साहब की इस ग़ज़ल मैंने भी लिखा था वो कुछ इस तरह से है ,,,,,,अब के बारिश में तो टूट चुका है घर वर सब
कमरे वमरे, छज्जा वज्जा छप्पर वप्पर सब

भ्रष्टाचारी दल दल में पूरा डूब चुके हैं
बाबू वाबू , खाकी वाकी , खद्दर वद्दर सब

लड़की को कम ना आंको वो भी बन सकती है
लायर वायर डॉक्टर वॉक्टर टीचर वीचर सब

इनको सब से क्या मतलब ये दौलत उपासक हैं
पण्डे वन्दे ,हाजी वाजी , फादर वादर सब

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 2, 2015 at 4:30pm

आदरणीय विजय शंकर सर हार्दिक आभार, नमन 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 2, 2015 at 4:29pm

आदरणीया महिमा जी सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 2, 2015 at 4:28pm

आदरणीय कृष्ण जी आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 2, 2015 at 4:28pm

आदरणीय सुनील जी आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 2, 2015 at 4:27pm

आदरणीय गिरिराज सर, सराहना के लिए आभार , मतले में संशोधन करता हूँ. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 2, 2015 at 4:25pm

आदरणीय गोपाल सर हार्दिक आभार.

ये ग़ज़ल राहत साहब की ग़ज़ल से प्रेरित है. पहले तरही ग़ज़ल ही लिखना चाह रहा था लेकिन फिर नए काफिया के साथ लिखने लगा.

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 2, 2015 at 4:22pm
प्रिय मिथिलेश जी , बहुत सुन्दर प्रयोग ,राहत इंदौरी की तर्ज पर , बधाई , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 2, 2015 at 4:21pm

आदरणीय नीलेश जी, ग़ज़ल पर मार्गदर्शन के लिए आभार. मतले पर पुनः विचार करता हूँ. 

राहत साहब के रंग का ही असर है. पहले रदीफ़ 'क्या' ले रहा था किन्तु 'सब' के सम्मोहन को छोड़ नहीं पाया,

सादर.  

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